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32... शोध प्रबन्ध सार
थामा जा सकता है? इसका समाधान ऋषि मुनियों द्वारा बताया गया प्राकृतिक विज्ञान है। मानव मन को निर्मल, सुसंस्कृत एवं सन्तुलित करने की प्रक्रिया है - संस्कार कर्म। यह मनुष्य जीवन को सशक्त एवं प्राणवान बनाती है।
मानव सभ्यता में संस्कार कर्म का प्रारम्भ अलौकिक शक्तियों के दुष्प्रभावों का शमन करने के लिए हुआ था। आम जनता में यह विश्वास था कि संस्कारों के द्वारा अमंगल का निराकरण और मंगल की प्राप्ति होती है। अनेक नैतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक प्रयोजन भी इसके पीछे अन्तर्भूत हैं। विज्ञान के द्वारा DNA का जो सिद्धान्त सिद्ध किया गया है, संस्कार कर्म उसी की प्रक्रिया है । गर्भ में आने के साथ ही बच्चे को अपने परिवार के अनुसार ढालना संस्कार विधान का मुख्य ध्येय है । आज इसके प्रति बढ़ता उपेक्षा भाव ही संस्कारों एवं संस्कृति के उच्चाटन का प्रमुख कारण है।
मानव समाज में संस्कारों का महत्त्व - संस्कारों का महत्त्व बता हु वैदिक ग्रन्थों में कहा गया है "जन्मना जायते शुद्रः संस्काराद्विज उच्यते” अर्थात मनुष्य जन्म से द्विज नहीं होता वह संस्कारों के द्वारा द्विज बनता है। निष्कर्ष यह है कि मनुष्य जन्म से तो पशु या पामर रूप ही होता है किन्तु संस्कारों के बाद से वह सुसंस्कारी मनुष्य बनता है । संस्कार एक पॉलिश है। यह बाहरी चमक को नहीं अपितु आंतरिक शुद्धि को बढ़ाता है। मानव का रहनसहन सब कुछ विकसित हो जाता है।
संस्कार आरोपण का उद्देश्य - संस्कार मानव जीवन को परिष्कृत करने की विधि विशेष है। विधि पूर्वक संस्कारों के अनुष्ठान द्वारा व्यक्ति में शमदम आदि गुणों का विकास होता है ।
गर्भाधान, जातकर्म, अन्नप्राशन आदि संस्कारों के द्वारा दोषमार्जन, उपनयन, ब्रह्मव्रत आदि संस्कारों से अतिशयाधान एवं विवाह, अग्न्याधान आदि के द्वारा हमारे जीवन की हीनांग पूर्ति होती है। इस प्रकार संस्कारों की अनेक विधियों द्वारा मानव अपने लक्ष्य तक पहुँचने में समर्थ होता है । संस्कार आरोपण के कुछ उद्देश्य निम्नोक्त हैं
प्रतिकूल प्रभावों की परिसमाप्ति करना । • अभिलषित प्रभावों को
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आकृष्ट करना । • शक्ति समृद्धि, बुद्धि आदि की प्राप्ति करना । • जीवन में होने वाले सुख-दुख की इच्छाओं को व्यक्त करना । • गर्भ एवं बीज सम्बन्धी दोषों