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30...शोध प्रबन्य सार अंग है। वर्तमान में विधि-विधान तो बढ़ रहे हैं किन्तु उनकी मौलिकता एवं आध्यात्मिकता घटती जा रही है। इन परिस्थितियों में उनके मूल स्वरूप को समझना एवं जानना अत्यंत आवश्यक है। आज विधि विधानों के नाम पर कई अनावश्यक तथ्यों ने जैन साधना पद्धति में प्रवेश कर लिया है। उचित और अनुचित में भेद तभी किया जा सकता है जब उचित को मापने का कोई थर्मामीटर हो। विद्वद साधक वर्ग द्वारा रचित साहित्य सही पहचान के लिए थर्मामीटर का ही कार्य करता है।
विधि-विधान के इच्छुक ज्ञान पिपासुओं के लिए यह कृति मुख्य नींव का कार्य करेगी। ग्रन्थ नाम एवं रचना काल आदि के आधार पर वे उन्हें सहजतया ढूँढ़ सकते हैं एवं उनकी समीचीन जानकारी भी प्राप्त कर सकते हैं।
विभिन्न विधि-विधानों की ऐतिहासिकता एवं मौलिकता समझने के लिए भी यह ग्रन्थ मुख्य सहयोगी बनेगा, भ्रमित मान्यताओं का निवारण करेगा तथा विधि-विधानों के सम्यक पथ पर आगे बढ़ने में पथ प्रदर्शक बनेगा।
खण्ड-2 जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का
तुलनात्मक अध्ययन
भारतीय संस्कृति में संस्कारों की सुदीर्घ परम्परा रही है। प्राच्य काल से चली आ रही इस प्रणाली का मुख्य ध्येय सुसंस्कृत, सभ्य समाज का निर्माण है। भारत एक धर्मप्रधान देश है। संस्कार आरोपण को यहाँ विशेष महत्व दिया गया है। वस्तुत: मनुष्य को शान्त, सभ्य, शालीन, एवं सुशिक्षित करने में संस्कारों की मुख्य भूमिका होती है।
संस्कारों का ध्येय है वस्तु को परिष्कृत करना। फिर चाहे वे संस्कार शरीर सम्बन्धी हो, अन्तःकरण की शद्धि सम्बन्धी हो अथवा भक्ति-भावना सम्बन्धी। संस्कार व्यक्ति को शारीरिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टियों से पुष्ट एवं परिपूर्ण बनाते हैं। इनके द्वारा दोषों का परिमार्जन एवं गुणों का आधान होता है। एक पत्थर का टुकड़ा संस्कारित होने के बाद ही रत्न की संज्ञा प्राप्त करता है। स्वर्ण को सुन्दर आभूषण का रूप एवं पत्थर को प्रतिमा का रूप तत्सम्बन्धी