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शोध प्रबन्ध सार
वर्तमान में विधि-विधान का प्राप्त स्वरूप कितना प्रामाणिक और प्रासंगिक है?
विधि-विधान के वर्तमान स्वरूप पर यदि चिंतन करें तो विधि-विधान का जो स्वरूप एवं विस्तार वर्तमान में प्राप्त होता है उसे पूर्णतया प्रामाणिक नहीं कह सकते, क्योंकि काल के प्रभाव से उनमें कई परिवर्तन आए परन्तु उन क्रियाविधियों का मूल उत्स आगम सम्मत और उद्देश्यपूर्ण है। टीका साहित्य तथा परवर्ती साहित्य में इनका जो विस्तृत उल्लेख प्राप्त होता है वह भी गीतार्थ एवं आगमज्ञ मुनियों द्वारा निरूपित है अतः वे प्रामाणिक हैं और कई विधिविधान जो कि अन्य परम्पराओं के प्रभाव से अथवा शिथिलाचरण के कारण अस्तित्व में आये तथा जिनका बहिष्कार नहीं हुआ, ऐसे कई लौकिक एवं लोक व्यवहार ग़त विधि-विधान भौतिक सुखों की प्राप्ति के लिए किए जाते हैं उनको अर्वाचीन परिस्थितियों का प्रभाव कह सकते हैं।
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अब यदि विधि-विधानों की वर्तमान प्रासंगिकता पर विचार करें तो वर्तमान के आधुनिक व्यस्त जीवन में लोगों का धर्म, कर्म एवं अध्यात्म के प्रति रूझान कम हो रहा है, जिसका मुख्य कारण है भौतिक साधनों, सौन्दर्य प्रसाधनों एवं पाश्चात्य संस्कृति का गहराता प्रभाव । फिर भी निष्पक्ष दृष्टि से विचार किया जाए तो कई कारणों से प्रासंगिक एवं प्रयोजनभूत प्रतीत होते हैं । जैसे कि गृहस्थ का आचार धर्म, तप विषयक आचार, षडावश्यक, श्रमणाचार, संलेखना अनशन, प्रायश्चित्त स्वीकार आदि की साधना वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन के संतुलन तथा शांतिपूर्ण जीवन के लिए आवश्यक है, क्योंकि इनका प्रभाव मात्र अध्यात्म जगत पर ही नहीं मानसिक एवं भौतिक जगत पर भी पड़ता है। इसी तरह वर्तमान समस्याओं के निराकरण में भी इनका उपयोग किया जा सकता है अत: जैन विधि-विधान प्रामाणिक एवं प्रासंगिक दोनों ही सिद्ध होते हैं।
जैन विधि-विधानों पर शोध की अर्थवत्ता
जैन धर्म मूलतः संन्यासमार्गी धर्म है। जैन साधना का मूल लक्ष्य आत्म विशुद्धि है। प्रत्येक आराधना में आत्मशुद्धि और आत्मोपलब्धि पर ही अधिक बल दिया गया है, किन्तु व्यवहार पक्ष भी नगण्य नहीं है। जन कल्याण और विश्व मंगल की भावना को भी यहाँ प्रमुखता दी गई है। वैयक्तिक साधना की दृष्टि से समाज निरपेक्ष एकाकी जीवन अधिक उपयुक्त माना गया है परन्तु साथ