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________________ 14... शोध प्रबन्ध सार कई क्रियाओं का आगमन लोक-व् क - व्यवहार या रीति - रीवाजों के कारण भी हुआ जैसे दीक्षा की ओढ़ी में पान-सुपारी रखना। यह लोक व्यवहार के कार्यों में मंगल स्वरूप प्रयुक्त होती थी, धीरे-धीरे यह प्रवृत्ति उत्तम धार्मिक कार्यों में भी सम्मिलित हो गई। पूर्व काल में गृहस्थ एवं साधु-साध्वी निर्भीक एवं आत्मार्थी होते थे। परन्तु काल प्रभाव से उनमें देवी देवताओं के प्रकोप आदि को लेकर भय आदि बढ़ने लगा और गिरते साधनाबल के कारण व्यंतर देवी-देवताओं का प्रभाव भी बढ़ने लगा। इस कारण से उनके निवारण हेतु कई क्रियाएँ विधि-विधानों में सम्मिलित हुई जैसे कि बाकुले आदि का दान, देवी-देवताओं के पूजन आदि । कई विधि-विधानों का स्वीकार बढ़ते गच्छ एवं परम्परा भेद के कारण भी हुआ, भले ही सबका मूल प्रयोजन और हार्द एक ही है परन्तु आमूल-चूल परिवर्तन के साथ सभी ने स्व परम्परा के नाम एवं मोह में उन्हें स्वीकार किया जैसे कि प्रतिक्रमण विधि, सामायिक विधि सूरिमंत्र आदि में कई भेद प्राप्त होते हैं। कई विधि परम्पराएँ देश-काल- क्षेत्र आदि के कारण भी प्रविष्ट हुई ऐसा प्रतीत होता है, जैसे कि वर्तमान में चल रहे विविध महापूजन यथा- पार्श्व पद्मावती महापूजन आदि। प्राचीन महापूजनों में तो नवपद पूजन, बीसस्थानक पूजन, शांतिस्नात्र पूजन आदि हैं यह सब काल एवं क्षेत्र का ही प्रभाव है। कई ऐसे विधि-विधान भी हैं जिन्हें पूर्वाचार्यों या गीतार्थ मुनियों ने आवश्यक जानकर बाद में सम्मिलित किए। जैसे कि प्रतिक्रमण में मूल विधि तो षडावश्यक तक ही है, परन्तु मूर्तिपूजक परम्परा में दैवसिक प्रतिक्रमण के अन्तर्गत सज्झाय, चार लोगस्स के कायोत्सर्ग, श्री सेढ़ी आदि चैत्यवंदन चौदहवीं शती के आस-पास सम्मिलित हुए तथा इसका प्रथम उल्लेख विधिमार्गप्रपा में ही मिलता है। इस प्रकार विधि-विधानों का मूल हार्द तो वही रहा किन्तु समयानुसार उसे करने के तरीकों में कुछ परिवर्तन होता रहा, जो कि विवेक, श्रद्धा एवं परिस्थिति के आधार पर ग्राह्य है । इस प्रकार हम कह सकते हैं कि, विधि-विधानों का एक क्रमिक विकास हमें आगम-ग्रन्थों से वर्तमान युग तक मिलता है। इनका मूल तो आगमों में ही गर्भित है तथा उसी बीज के आधार पर आज विधि-विधानों का यह घना वटवृक्ष पल्लवित हुआ है।
SR No.006238
Book TitleJain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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