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10...शोध प्रबन्ध सार विधि-विधानों का मौलिक उद्देश्य
जैन परम्परा में प्राय: आराधनाएँ विधि-विधान युक्त होती हैं। फिर चाहे वह विधि-विधान लघु रूप हो या बृहद् रूप। यहाँ सबसे मुख्य प्रश्न है कि इन विधि-विधानों का उद्देश्य क्या है? यदि सूक्ष्मता पूर्वक इस विषय पर चिंतन किया जाए तो निम्न तथ्य परिलक्षित होते हैं
• विधि-विधानों का मुख्य उद्देश्य संसारी आत्मा को शुद्ध आत्म स्वरूप की अनुभूति करवाना है।
• विधि-विधान करना अर्थात धार्मिक क्रिया-कलापों में संलग्न रहना। इससे समय तो सार्थक होती ही है। इसी के साथ ही नए पाप कर्मों का बंधन बाधित होता है एवं पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा होती है।
• शुभ क्रियाएँ करने से मन सद्विचारों में प्रवृत्त रहता है। सम्यक विचार ही सदाचार एवं सद्व्यवहार में हेतुभूत बनते हैं। इसके द्वारा एक सुसंस्कृत समाज का निर्माण हो सकता है।
• ऋषि-मुनियों एवं धर्माचार्यों द्वारा गुम्फित विधान मात्र आध्यात्मिक प्रगति में ही हेतुभूत नहीं बनते। इनके पीछे कई प्राकृतिक एवं वैज्ञानिक तथ्य भी रहे हुए हैं जो विश्व व्यवस्था के संतुलन हेतु आवश्यक है।
• विधि-विधान करने का अभिप्राय है मानव को मानवीय मर्यादाओं का ज्ञान एवं परिपालन करवाना। इससे पारिवारिक एवं सामाजिक व्यवस्था सुगठित रहती है।
• भिन्न-भिन्न विधान मानव का भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में विकास करते हैं जैसेसामायिक, प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ मुख्य रूप से वैयक्तिक जीवन को प्रभावित करती हैं। वही वंदन, पूजन, प्रतिष्ठा आदि विधान सामुदायिक रूप में किए जाते हैं। इनसे आपसी मन-मुटाव दूर होते हैं और सम्बन्धों में प्रगाढ़ता बढ़ती है।
• धार्मिक क्रिया अनुष्ठानों के द्वारा पाप प्रवृत्तियाँ न्यून होने से दुष्कर्म समाप्त हो जाते हैं और आत्मा परमात्मा बन जाती है।
• शुभ आराधनाओं से मानसिक विकारों का शमन होता है और विषय कषाय आदि मन्द हो जाते हैं।
• सामायिक आदि विविध अनुष्ठानों के द्वारा राग-द्वेष की परिणति कम