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शोध प्रबन्ध सार ...11 होती है, वैर-विरोध की भावना घट जाती है तथा मैत्री, प्रमोद, वात्सल्य आदि गुणों का विकास होता है।
• शुभ अनुष्ठानों के द्वारा यह सांसारिक मन छल, कपट, प्रपंच आदि दोषों से मुक्त होता है।
• प्रायश्चित्त एवं आलोचना रूप प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ आत्म विशुद्धि में परम सहायक बनती हैं। इसमें विविध आसन, मुद्रा आदि का प्रयोग शरीर को स्वस्थ, निरोगी एवं संतुलित रखता है। कृत पापों की बार-बार आलोचना करने से पाप मुक्ति का संकल्प मजबूत होता है। आचार में सात्विकता एवं समता का वर्धन होता है। मानसिक हलचल समाप्त होती है। टेंशन, डिप्रेशन आदि से मुक्ति मिलती है।
.. वंदना, नमस्कार आदि नित्य क्रियाओं से नम्रता, सरलता, विवेकशीलता आदि गणों का वर्धन होता है। अहंकार एवं आग्रह बुद्धि नष्ट होती है।
• जिनप्रतिमा पूजन-दर्शन आदि विधानों के माध्यम से जीवन में सुंदर लक्ष्य का निर्माण होता है। इससे उच्च आदर्श एवं उदात्त उच्च जीवन की प्राप्ति होती है।
• प्रत्याख्यान आदि विधियों का पालन मानसिक एवं शारीरिक तृष्णा को मन्द करता है। इससे संकल्प में दृढ़ता आती है। यह त्याग एवं आसक्ति भाव को बढ़ाता है। इस नियम के द्वारा तृष्णा एवं संग्रह वृत्ति कम होने से जीवन में संतोष गुण की अभिवृद्धि होती है।
• तपस्या कर्म निर्जरा का प्रमुख साधन है। इसी के साथ शारीरिक स्वस्थता हेतु यह सर्वश्रेष्ठ औषधि है। यह रोगाणुओं का नाश करती है एवं रोग प्रतिरोधक शक्ति का विकास करती है। इससे मन शांत होता है। तन और मन शान्त रहने से आत्म साधना को सम्यक दिशा मिलती है। मन, वचन और काया योग शुभ की ओर प्रवृत्त होते हैं जो भविष्य में मोक्ष का कारण बनते हैं।
• व्रत ग्रहण, प्रव्रज्या आदि के विधान कर्म बन्ध को सीमित करते हैं। ये सामूहिक स्तर पर आयोजित होने से अन्य लोगों को तद्हेतु प्रेरित भी करते हैं। इसी के साथ देव, गुरु एवं आत्मसाक्षी में होने से इनमें दृढ़ता भी कायम रहती है।