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शोध प्रबन्ध सार ...9 आदर्श आचरण नहीं हो सकता। इसी प्रकार सम्यकदर्शन के अभाव में ज्ञान युक्त आचरण भी मात्र नवग्रैवेयक तक पहुँचा सकता है किन्तु मोक्ष की प्राप्ति नहीं करवा सकता। इससे यह निश्चित है कि तीनों की समन्विती आवश्यक है। इन शास्त्र वचनों से यह भी सुसिद्ध हो जाता है कि क्रिया मोक्ष प्राप्ति का आवश्यक चरण है। परन्तु कब, कौनसी क्रिया, कितनी आवश्यक है? यह अनुभवगम्य विषय है।
प्रश्न हो सकता है कि जब क्रिया को इतना महत्त्वपूर्ण माना गया है तो फिर जैन धर्म को निवृत्ति मूलक क्यों कहा? इस शंका का समाधान पूर्व में भी कर चुके हैं कि जैन विधि-विधानों में क्रिया का अर्थ है सम्यक आचरण। ऐसा आचरण जो जीव को शुद्ध आत्म स्वरूप की प्राप्ति करवाए। वैदिक ग्रन्थों में क्रिया का अर्थ यज्ञ, हवन, पूजा, उपासना आदि से युक्त क्रियाकांड माना गया है। जबकि जैन तीर्थंकरों ने स्वर्ग आदि की इच्छा से ऐसे कार्यों के सम्पादन का विरोध किया है। मोक्ष प्राप्ति हेतु ऐसे क्रियाकांड उन्हें आवश्यक प्रतीत नहीं हुए। इन प्रवृत्तियों से निरपेक्ष धर्म की स्थापना करने के कारण श्रमण परम्परा निवृत्ति मूलक कहलाई। जैन धर्म क्रियाकांड रहित होने पर भी इसमें आचार मार्ग को सदा काल से प्रमुखता दी गई हैं। यहाँ आचारगत कई ग्रन्थों एवं नियमोपनियमों का भी गठन किया गया है। आचारांग आदि आगमों की रचना इसी का प्रमाण है अत: यह कह सकते हैं कि जैन परम्परा में क्रिया को महत्त्वपूर्ण माना गया है परंतु एकान्त क्रिया को मोक्ष का हेतु नहीं माना है।
जैन धर्म को निवृत्ति मूलक कहने का दूसरा हेतु है मोक्ष मार्ग की प्रधानता। जैन विधि-विधानों का मुख्य उद्देश्य कर्म मुक्त अवस्था की प्राप्ति है। सांसारिक सुखों की प्राप्ति हेतु किसी भी विधान का गुंफन हुआ हो, ऐसा देखने में नहीं आया हैं अत: समस्त क्रियाओं का लक्ष्य निवृत्त अवस्था होने से भी इसे निवृत्ति मूलक धर्म कहा गया है। वर्तमान में लौकिक सुख की कामना से युक्त जो भी विधि-विधान करवाएँ जाते हैं वे आगमोक्त नहीं है। परवर्ती काल में विविध सामाजिक रीति-रिवाजों एवं अन्य सामयिक धर्म संप्रदायों के प्रभाव से कुछ क्रियाकांडों का प्रवेश जैन परम्परा में भी अवश्य हआ और उसी का विकसित रूप आज विविध क्रिया-अनुष्ठानों के रूप में देखा जाता है।