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144...शोध प्रबन्ध सार
आज यह एक आडम्बर युक्त बृहद् अनुष्ठान बनकर रह गया है। आचार्यों के स्थान पर विधिकारकों का वर्चस्व बढ़ गया है। ___ अनुष्ठानों में आत्म जागृति के स्थान पर बाह्य दिखावट, साज-सज्जा एवं पैसे की आवक पर ही विशेष बल दिया जाता है। देवी-देवताओं के प्रति बढ़ता रूझान भी एक विचारणीय तथ्य है। ऐसे ही कई पक्षों पर ध्यान केन्द्रित करने का प्रयास इस अध्याय के माध्यम से किया है।
__ जैन मूर्तिपूजक समाज में प्रतिष्ठा को एक महत्त्वपूर्ण विधान माना गया है। इसी विधान के माध्यम से नगर में परमात्मा की एवं जनमानस के हृदय में धर्म की प्रतिष्ठा होती है। चिहुँ ओर अध्यात्म की महक प्रसरित होने लगती है। प्रस्तुत खंड में प्रतिष्ठा विषयक विभिन्न पक्षों की चर्चा करने का मुख्य उद्देश्य इस महत अनुष्ठान के सम्यक स्वरूप से परिचित करवाना है।
प्रतिष्ठा एक रहस्यपरक अनुष्ठान है। इसमें किए जाने वाले अनेकशः विधानों के पीछे अनेक रहस्य छिपे हुए हैं। उन रहस्यों को न जानने एवं समझने के कारण अनेक प्रकार की भ्रान्तियाँ एवं धारणाएँ जन मानस में स्थापित हो जाती है। यह कृति उन शंकाओं का निवारण करते हुए अनावश्यक विधानों को समाप्त करने में सहायक बनेगी। साथ ही समुचित विधानों को सही रूप में करने हेत मार्गदर्शन प्रदान करेगी।
प्रतिष्ठा एक विधि-विधान बहुल अनुष्ठान है, जिसको करवाने का मुख्य अधिकार आचार्यों को ही है। अत: इसके अन्तर्भूत रहस्यों एवं परम्पराओं को समझने के लिए आचार्यों का सतत अनुभव एवं दिशा निर्देश आवश्यक है। एतदर्थ कई विषयों के सम्बन्ध में अब भी प्रश्नचिह्न बना हुआ है। आशा है ज्ञान पिपासु मुनिवर्ग इस पर अन्वेषण करते हुए उसके विभिन्न रहस्यों को उजागर करेंगे यही अभिलाषा है।
समष्टि रूप में कहा जा सकता है कि यह तृतीय भाग जैन परम्परा के कुछ महत्त्वपूर्ण अनुष्ठानों का सम्यक स्वरूप प्रस्तुत करता है। यह अनुष्ठान श्रमण एवं श्रावक दोनों के ही जीवन में अभूतपूर्व महत्ता रखते हैं। इस भाग में वर्णित खण्डों का उद्देश्य उन विधानों की प्रासंगिकता एवं सर्वाङ्गीणता से समस्त श्रद्धालु जनों को परिचित करवाना है।