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__ शोध प्रबन्ध सार ...143 आवश्यकता के कारण तो कभी उन आचार्यों पर रहे अन्य परम्पराओं के संस्कारगत प्रभाव के कारण। शनैः शनैः आए इन परिवर्तनों का संकलन अद्य प्रचलित प्रतिष्ठा विधानों में परिलक्षित होता है। आज इनमें कई विधान प्राचीन प्रतिष्ठा कल्पों के अंश है तो कई प्रतिष्ठा ग्रन्थों के। कुछ विधान ऐसे हैं जो वर्तमान में औचित्यपूर्ण नहीं है तो कुछ में परिवर्तन की आवश्यकता है। ऐसे ही कई तथ्यों पर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विचार किया है।
इस अध्याय में प्राचीन और अर्वाचीन प्रतिष्ठा ग्रन्थों एवं विधियों का ऐतिहासिक, तुलनात्मक एवं समालोचनात्मक अध्ययन किया है। इसी के साथ प्रतिष्ठा विधानों में आए क्रान्तिकारी परिवर्तनों के हेतु, प्रतिमाओं में कला प्रवेश आदि अनेक विषयों की चर्चा की है।
सोलहवें अध्याय में सम्यक्त्वी देवी-देवताओं का शास्त्रीय स्वरूप दर्शाते हुए उस विषयक जैन धर्म की अवधारणा को स्पष्ट किया है। इस अध्याय में गृहस्थ के लिए सम्यक्त्वी देवी-देवताओं का स्थान कितना ऊँचा है और उनका सत्कार-बहुमान कितने स्तर तक किया जाना चाहिए? इस सम्बन्ध में सयुक्ति पूर्ण निरूपण किया है।
प्रस्तुत अध्याय में देवी देवताओं के शास्त्रीय स्वरूप की चर्चा करने का मुख्य कारण है 24 तीर्थंकरों के शासन देवी-देवता, 16 विद्यादेवी, 10 दिक्पाल, नवग्रह देवता, क्षेत्रपाल देव आदि सम्यक्त्वी देवताओं का सम्यक परिचय देना। जैन धर्म वीतराग उपासक माना जाता है अत: इन देवी-देवताओं की उपासना साधर्मिक के रूप में ही होनी चाहिए। परंतु वर्तमान में उनकी बढ़ती प्रमुखता एक विचारणीय प्रश्न है। आज इन देवी-देवताओं की पूजा उनके चमत्कारों की वजह से एवं सांसारिक भोग कामनाओं की पूर्ति के लिए की जाती है। परमात्मा से अधिक प्रमुखता भोमियाजी, पद्मावती, भैरूजी आदि की उपासना को दी जाती है। इस विषय में जैनाचार्यों एवं श्रावकों को अवश्य सचेष्ट होना चाहिए।
इस खण्ड का अंतिम अध्याय उपसंहार रूप है। इस अध्याय में प्रतिष्ठा विधान में आए परिवर्तन एवं उनका वर्तमान प्रचलित स्वरूप तथा उनके परिणाम बताए हैं। इसी के साथ प्रतिष्ठा सम्बन्धी अनेक सारभूत तथ्यों की चर्चा की है। प्रतिष्ठा विधान एक अध्यात्मपरक आत्म जागृति का विधान है परंतु