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138...शोध प्रबन्ध सार है। इसी के साथ वर्तमान में उठाए जाने वाले अनेक प्रश्न जैसे कि जिनमन्दिर निर्माणगत हिंसा निर्दोष कैसे? मन्दिर में विविध स्थानों का निर्माण क्यों आदि? तदनन्तर मन्दिर निर्माण सम्बन्धी आवश्यक जानकारी, मन्दिर निर्माण के उपप्रकारों का परिचय, प्रासादों के विविध प्रकार, उनकी उत्पत्ति के कारण, जिनालय के परिसर सम्बन्धी अशुद्धताएँ और अपशकुन, जिनालय निर्माण सम्बन्धी दोष, शिल्पकार का बहमान क्यों और कैसे? आदि विविध आवश्यक विषयों की चर्चा की गई है।
सातवें अध्याय में जिनबिम्ब निर्माण की शास्त्रोक्त विधि बताई गई है। यह सर्वमान्य सत्य है कि सामाजिक एवं आध्यात्मिक विकास में प्रार्थना स्थलों का विशेष स्थान है। इन स्थानों की प्रभावकता एवं आकर्षण का मुख्य केन्द्र होता है ततस्थित प्रार्थना आलंबन, फिर वह चाहे जिस रूप में हो। जिन प्रतिमा, आराधना का मुख्य आधार है। अत: उसके निर्माण में विवेक एवं सावधानी रखते हुए शास्त्र विहित नियमों का पालन करना अत्यावश्यक है। जिनबिम्ब निर्माण हेतु प्रयुक्त होने वाली शिला, निर्माणकर्ता शिल्पी, बिम्ब निर्माण प्रारंभ करने का मुहूर्त, दिशा आदि जिन प्रतिमा को विशेष प्रभावित करते हैं। इनके प्रति जितनी सचेष्टता रखी जाए जिनबिम्ब उतना ही अधिक ओजस्वी होता है।
उपरोक्त अध्याय में ऐसे ही विषयों की चर्चा करते हुए शिल्पकार के चयन, शिल्पकार एवं गृहस्थ के सम्बन्ध, शिल्प निर्माण के अष्टसूत्र, दिशा निर्णय, शिला परीक्षण विधि आदि के विषयों पर प्रकाश डाला है।
आठवाँ अध्याय जिन प्रतिमा सम्बन्धी विविध पक्षों की चर्चा से सम्बन्धित है। जिनप्रतिमा अर्थात तीर्थंकर परमात्मा की मूर्ति जो उनके साक्षात स्वरूप का आभास करवाने के लिए पाषाण, धातु, काष्ट, रत्न आदि द्रव्यों से निर्मित की जाती है। यह प्रतिमा अपने गुण विशेष के आधार पर वीतराग प्रभु की छवि का आभास करवाती है तथा उनके समान बनने की प्रेरणा देती है।
प्रतिमा का शाब्दिक अर्थ है प्रतिबिम्ब। सामान्यतया किसी भी धर्म या दर्शन से सम्बन्धित मूर्तियों के लिए प्रतिमा शब्द का प्रयोग होता है। मन्दिर में स्थापित प्रतिमा कैसी हो? उसकी स्थापना कहाँ हो? उसकी ऊँचाई आदि कितनी होनी चाहिए? कौन सी प्रतिमा क्या फल प्रदान करती है? हीनांग प्रतिमाएँ शुभ फल देती है या अशुभ? खण्डित प्रतिमाओं के परिणाम,