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शोध प्रबन्ध सार ...
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इस कृति के माध्यम से जिज्ञासु श्रावक वर्ग को जिनपूजा की महत्ता, आवश्यकता एवं ऐतिहासिकता से परिचित करवाने का लघु प्रयास किया है। यह खंड कुल ग्यारह अध्यायों में उपविभाजित है ।
प्रथम अध्याय में जिनपूजा के सैद्धान्तिक स्वरूप का वर्णन करते हुए उसके विविध प्रकारों की चर्चा की गई है।
सामान्यतया किसी का भी आदर, सत्कार आदि करना पूजा कहलाता है । यदि जैन वाङ्गमय का परिशीलन करें तो आगम युग से अब तक पूजा के अनेक प्रकार परिलक्षित होते हैं। शास्त्रकारों ने विविध अपेक्षाओं से पूजा के एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह, आठ, चौदह, सत्तरह, इक्कीस, एक सौ आठ, एक हजार आठ आदि अनेक भेदों का वर्णन किया है।
प्रस्तुत अध्याय में जिन धर्म में प्रचलित उन्हीं प्रकारों का प्रामाणिक संक्षिप्त वर्णन किया है।
इस खण्ड का द्वितीय अध्याय जिनपूजा सम्बन्धी विधि-विधानों से सन्दर्भित है। जिनपूजा एक दैनिक अनुष्ठान है। इसके सम्यक परिणाम तभी प्राप्त हो सकते हैं जब इसकी सविधि समुचित आराधना की जाए । कार्य छोटा हो या बड़ा वह विधि पूर्वक करने पर ही सुपरिणाम देता है। किसी भी विधि में Shortcut अपनाने से उस कार्य में कोई न कोई कमी रह ही जाती है। इसी पहलू को ध्यान में रखकर द्वितीय अध्याय में जिनपूजा सम्बन्धी विधानों का विस्तृत एवं क्रमिक वर्णन किया गया है। जिससे श्रावक वर्ग समुचित विधि से परिचित हो जाएं।
तृतीय अध्याय में जीत व्यवहार में प्रचलित अष्टप्रकारी पूजा का बहुपक्षीय अनुशीलन किया गया है।
जिनपूजा एक आगमिक विधान है। आगम काल से इसके अनेक प्रकार परिलक्षित होते हैं। वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप श्रावक वर्ग के लिए मात्र अष्टप्रकारी पूजा का विधान है। परंतु आज अधिकांश श्रावक वर्ग प्रमाद के कारण इसका भी अनुसरण नहीं करते। अष्टप्रकारी पूजा के महत्त्व एवं उसके विविध पक्षों से अवगत करवाने हेतु तृतीय अध्याय का लेखन किया गया है।
इस अध्याय में सर्वप्रथम अष्टप्रकारी पूजा की विधि एवं दोहों का सार्थ विवेचन किया गया है। तदनन्तर प्रत्येक पूजा के विविध पक्षों को उजागर करने