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________________ 124...शोध प्रबन्ध सार दोपहर की पूजा से इस भव के पापों का नाश होता है तथा संध्याकालीन पूजा से सात जन्म के पाप विनष्ट होते हैं। जिस प्रकार एक जौहरी रत्न का सही मूल्य जानने के लिए बार-बार उसकी परख करता है वैसे ही परमात्मा की सच्ची पहचान करने के लिए परमात्मा के बार-बार दर्शन करने चाहिए। जिनपूजा में अहिंसा की सिद्धि- कई लोग कहते हैं कि परमात्मा को जल, पुष्प आदि सचित्त द्रव्य चढ़ाने में हिंसा होती है अत: द्रव्य पूजा हिंसा युक्त है। तत्त्वार्थसूत्र में हिंसा को परिभाषित करते हुए कहा है ‘प्रमत्त योगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा' प्रमादवश कार्य करना या किसी जीव के प्राणों को क्षति पहुँचाना हिंसा है। जबकि पूजा विधान के दौरान अप्रमत्त रहना आवश्यक है। परमात्मा को द्रव्य अर्पण करने में हिंसा नहीं होती अपितु जिनपूजा के माध्यम से उत्कृष्ट निरवद्य अहिंसा का पालन होता है। चढ़ाए जाने वाले पुष्प आदि को अभयदान मिलता है अत: जिनपूजा हिंसाजन्य नहीं है। वस्तुत: जिनपूजा करने से जिनाज्ञा का पालन होता है। वर्तमान संदर्भो में जिनपूजा पर शोध की आवश्यकताजिनपूजा जैन आचार का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है। जिस प्रकार षडावश्यक की आराधना श्रावक एवं श्रमण वर्ग के लिए आवश्यक है वैसे ही जिनपूजा भी दोनों वर्गों के लिए आवश्यक है। श्रावक के लिए जहाँ द्रव्य पूजा एवं भावपूजा दोनों ही आवश्यक है वहीं साधु के लिए मात्र भाव पूजा का विधान है। शास्त्रकारों ने श्रावक के लिए त्रिकाल पूजा दर्शन का विधान किया है। परंतु आज की परिस्थितियाँ एकदम भिन्न है। आज का श्रावक वर्ग नाम से अवश्य श्रावक है परंतु उसकी क्रियाएँ शास्त्रोक्त श्रावक के समान नहीं है। आज त्रिकाल पूजा छोड़कर श्रावकों को एक समय परमात्म दर्शन करने का भी समय नहीं है। परमात्म भक्ति, पूजा आदि से लोगों की श्रद्धा हटती जा रही है। व्यस्त जीवन शैली एवं भ्रमित मान्यताओं के कारण लोगों ने पूजा-पाठ को आडम्बर या अनावश्यक कार्य की संज्ञा देकर रखी है। जो लोग सेवा पूजा नियम से करते हैं उन्हें भी सही विधि का ज्ञान नहीं है। मात्र पूर्वानुकरण करते हुए क्रियाएँ की जाती है। सही अभिप्राय जानने का समय और साधन लोगों के पास नहीं है।
SR No.006238
Book TitleJain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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