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________________ शोध प्रबन्ध सार ...117 कई लोगों का कहना है कि संस्कृत एवं प्राकृत सूत्रों का अर्थ तो समझ में आता नहीं अतः जन प्रचलित भाषा में कर देना चाहिए। परंतु प्रायः हर नगर एवं प्रांत की भाषा में कुछ न कुछ अंतर होता है तो फिर प्रतिक्रमण किस भाषा में बनाया जाए? आज की व्यस्त जीवन शैली में लोग धार्मिक क्रियाओं को अनावश्यक एवं बोरिंग मानते हैं क्योंकि अधिकांश वर्ग उसकी मौलिकता एवं नियमबद्धता से अपरिचित है। कई लोग ऐसे भी हैं जो प्रतिक्रमण करने के लिए करते हैं मगर उसे क्यों. कैसे, कब करना चाहिए, इसका कोई परिज्ञान नहीं है। ऐसे में यह क्रिया समुचित फल नहीं दे सकती। इन्हीं सब पक्षों को ध्यान में रखते हुए एवं आज के आधुनिक युग में प्रतिक्रमण की महत्ता समझाने के लिए यह कृति सात अध्यायों में विभाजित की गई है। प्रथम अध्याय में प्रतिक्रमण का अर्थ विश्लेषण करते हुए उसकी शाब्दिक महत्ता को उजागर किया है। प्रतिक्रमण षडावश्यक में से चतुर्थ आवश्यक है। परन्तु आज इन षडावश्यकों को ही प्रतिक्रमण नाम से सम्बोधित किया जाता है। पाप स्वीकृति की यह क्रिया अपने आप में विशिष्ट महत्ता एवं अर्थवत्ता लिए हुए है। इसी महत्ता को प्रतिपादित करने हेतु प्रथम अध्याय में प्रतिक्रमण का अर्थ विश्लेषण करते हुए उसकी अनेक परिभाषाएँ बताई है। साथ ही प्रतिक्रमण कब करना चाहिए? इस सन्दर्भ में प्रतिक्रमण के दो, तीन, यावत आठ प्रकारों का उल्लेख किया है। इस शोध खण्ड के द्वितीय अध्याय में प्रतिक्रमण के गूढ रहस्यों का विविध पक्षीय अनुसंधान किया है। ___प्रतिक्रमण जैन साधना का आवश्यक अंग है। तीर्थंकरों द्वारा इस क्रिया का गुंफन विविध हेतुओं से किया गया। व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्र में इसकी अभिन्न आवश्यकता है और इसी कारण इसे आवश्यक कहा गया है। इसी आवश्यकता को पुष्ट करने हेतु प्रस्तुत अध्याय में प्रतिक्रमण क्यों? प्रतिक्रमण कौन किसका करें? प्रतिक्रमण कब करें? असंभव अतिचारों का प्रतिक्रमण क्यों? प्रतिक्रमण का महत्त्व सर्वाधिक क्यों? षडावश्यक की
SR No.006238
Book TitleJain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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