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116...शोध प्रबन्ध सार अतिचार नहीं लगते तो फिर उनके लिए प्रतिक्रमण करना जरूरी क्यों? प्रज्ञाशील शास्त्रकारों ने इसका समाधान देते हुए कहा है कि व्रती एवं अव्रती दोनों को ही प्रतिक्रमण करना चाहिए।
प्रतिक्रमण का हेतु मात्र अतिचारों की शुद्धि ही नहीं है। वंदितु सूत्र के अनुसार “पडिसिद्धाणं करणे किच्चाणमकरणे अ पडिक्कमणं' अर्थात वीतराग परमात्मा द्वारा निषिद्ध कार्य करने पर, उपदिष्ट या करणीय कार्य न करने पर, जिन वचन में अश्रद्धा रखने पर एवं जिनेश्वर द्वारा प्रतिपादित तत्त्वज्ञान के विरुद्ध विचारों का प्रतिपादन करने पर प्रतिक्रमण करना चाहिए अत: चाहे अविरति हो. देशविरति हो, चाहे सर्वविरति सभी के लिए प्रतिक्रमण आवश्यक है।
विविध दृष्टियों से प्रतिक्रमण की उपयोगिता- यदि गवेषणात्मक दृष्टि से प्रतिक्रमण की महत्ता के विषय में चिंतन करें तो निम्न बिन्दु उसकी महत्ता को उजागर करते हैं
• साधु-साध्वियों के लिए निर्दिष्ट दस कल्पों में से एक प्रतिक्रमण है।
• प्रतिक्रमण एक प्रकार का प्रायश्चित्त है अत: आभ्यंतर तप के समान यह आत्म विशुद्धि में सहायक है।
• प्रतिक्रमण के द्वारा लौकिक एवं लोकोत्तर कल्याण होता है।
• प्रतिक्रमण यह पाप शुद्धि की क्रिया है। पाप विशुद्धि के दौरान ‘मित्ति में सव्व भूएसु' के द्वारा जगत मैत्री की कल्पना की जाती है।
• प्रतिक्रमण ध्यान का पहला चरण है क्योंकि यह जीव को निज स्वरूप की ओर उन्मुख करता है।
इसी प्रकार अनेक अन्य पक्ष भी इसकी महत्ता को सिद्ध करते हैं।
इस शोध का मुख्य प्रयोजन- जैन ग्रन्थों में प्रतिक्रमण को जो महत्त्वपूर्ण स्थान देते हुए उसकी आवश्यक रूप में विवेचना की है आज वह स्थान धूमिल होता जा रहा है। साधु वर्ग में तो यह नियमित आवश्यक रूप में आज भी प्रवर्तित है परन्तु अधिकांश श्रावक वर्ग इसकी नित्य आराधना से अपरिचित है। आज की युवा पीढ़ी तो मात्र संवत्सरी को प्रतिक्रमण करना चाहिए यह जानती है। उसमें भी उसकी दीर्घ अवधि के कारण लोग उसे करने से कतराते हैं।