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________________ शोध प्रबन्ध सार ...115 • दिवस, रात्रि, पक्ष, चातुर्मास या संवत्सर में लगे हुए दोषों से निवृत्त होने के लिए प्रतिक्रमण करना चाहिए। प्रतिदिन प्रतिक्रमण क्यों करना चाहिए? मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग आदि के कारण जाने-अनजाने जीव अशुभ प्रवृत्तियों में संलग्न रहता है अत: प्रतिक्रमण करना ही चाहिए। इससे जीव पाप कर्म करने में रुक जाता है। पश्चात्ताप करने से चित्त की विशद्धि होती है। ___पाप कर्म प्रतिदिन होते हैं अत: उन्हें क्षीण करने की क्रिया भी प्रतिदिन होनी चाहिए। जिस प्रकार वस्त्र, बर्तन आदि थोड़े से मैले होने पर धो लिए जाए तो जल्दी साफ हो जाते हैं अन्यथा समय के अनुसार मेहनत भी बढ़ती जाती है। वैसे ही अधिक पापकर्म एकत्रित होने पर उन्हें क्षीण करने हेतु भी उतना अधिक प्रयास करना पड़ता है। जैनाचार्यों ने आत्मा को अधिक मलिन होने से बचाने के लिए ही इसकी नित्य नियमबद्धता पर जोर दिया है। गलतियाँ करके छिपाना यह वर्तमान में अधिकांश लोगों की मानसिकता है। इस विकृति से मुक्ति पाने के लिए प्रतिक्रमण श्रेष्ठ औषधि है। षडावश्यक रूप क्रिया को प्रतिक्रमण अभिधान क्यों? आवश्यक मूल रूप से छ: आवश्यक क्रियाओं का संयोग है परन्तु वर्तमान में इसे प्रतिक्रमण रूप में ही जाना जाता है। इसके निम्न कारण हो सकते हैं प्रतिक्रमण चतुर्थ आवश्यक है और सब आवश्यकों में अक्षर प्रमाण में बड़ा है अत: सभी आवश्यकों को प्रतिक्रमण नाम से पुकारा जाता है। दूसरा हेतु यह है कि भगवान महावीर का धर्म सप्रतिक्रमण धर्म है अत: साधक के लिए प्रतिदिन दोनों समय प्रतिक्रमण करना आवश्यक है। अन्य सामायिक, कायोत्सर्ग, वंदन आदि आवश्यक प्रतिक्रमण आवश्यक की पूर्व भूमिका एवं उत्तर क्रिया के रूप में ही प्राय: होते हैं। इसीलिए सभी आवश्यकों को प्रतिक्रमण नाम से सम्बोधित किया जाता है। प्रतिक्रमण सभी के लिए आवश्यक क्यों? जैनागमों में प्रतिक्रमण को आवश्यक कहा गया है। ‘अवश्यं करणीयत्वाद् आवश्यकम्' अर्थात जो अवश्य करणीय हो वह आवश्यक कहलाता है। साधु और श्रावक दोनों के लिए यह नितांत जरूरी कहा गया है। सर्वविरति और देशविरति साधकों के लिए इसकी नियमितता समझ में आती है। परन्तु अविरति साधक व्रत रहित होने से उन्हें
SR No.006238
Book TitleJain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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