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________________ 114 ... शोध प्रबन्ध सार होती है, जिनसे दूसरों को कष्ट पहुँचता है एवं अपनी आत्मा मलिन बनती है अतः जब भी दोष का सेवन हो जाए अथवा 'दोष सेवन किया है' यह ज्ञान हो जाए उसी समय साधक को 'मिच्छामि दुक्कडम्' कहकर प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए। ग्रंथकारों के अनुसार जब तक पाप का प्रतिक्रमण न किया जाए तब तक आत्म शुद्धि नहीं होती । कृत पाप कार्य का अनुबंध निरंतर चलता रहता है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने निम्न स्थितियों में मुनि को प्रतिक्रमण करने का निर्देश दिया है • वस्त्र, पात्र एवं वसति आदि की प्रतिलेखना और प्रमार्जना करने पर । • अवशिष्ट भक्तपान का परिष्ठापन करने पर । • उपाश्रय का काजा ( कचरा) निकालने पर । उपाश्रय से सौ हाथ की दूरी निश्चित कर मुहूर्त्त भर उस स्थान में ठहरने पर। विहार, स्थंडिलगमन, भिक्षाचर्या आदि गमनागमन रूप प्रवृत्ति से निवृत्त • होने पर। नौका द्वारा जलमार्ग पार करने पर । • • प्रतिषिद्ध आचरण करने पर । • स्वाध्याय आदि वंदनीय कार्य नहीं करने पर। • तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट सिद्धान्तों के प्रति अश्रद्धा होने पर । • जिनमत के विपरीत प्ररूपणा करने पर । श्रावकों को किन स्थितियों में प्रतिक्रमण करना चाहिए? इस सम्बन्ध में कोई पृथक उल्लेख कहीं भी प्राप्त नहीं होते। प्रचलित परम्परा एवं परवर्ती कृतियों के आधार पर निम्न स्थितियाँ प्रतिक्रमण करने योग्य प्रतिभासित होती है। पौषधव्रती एवं उपधानवाही द्वारा वसति के कचरे (काजा) का परिष्ठापन • करने पर। • वस्त्र आदि की प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना करने पर । • उपाश्रय से सौ हाथ की दूरी तक गमनागमन करने पर • मल-मूत्र आदि का परिष्ठापन या तद्योग्य क्रिया करने पर • सामान्य श्रावक के लिए सामायिक आदि धार्मिक अनुष्ठान करते समय।
SR No.006238
Book TitleJain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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