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________________ 104...शोध प्रबन्ध सार खण्ड-11 षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक संदर्भ में षडावश्यक जैन धर्म की एक महत्त्वपूर्ण क्रिया है। इस क्रिया के नाम से ही इसके अर्थ का सहज बोध हो जाता है। साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ के लिए यह क्रिया उभय संध्याओं में आवश्यक मानी गई है। वर्तमान में षडावश्यक को प्रतिक्रमण के नाम से जाना जाता है। __अनादिकालीन दुष्कर्मों का क्षय, नवीन कर्मों का संवर एवं मैत्री आदि सद्गुणों का उत्कर्ष करने के लिए यह एक आध्यात्मिक अनुष्ठान है। इसके द्वारा दोषों का अपनयन एवं जीवन शद्धि होती है तथा अंततोगत्वा स्व-स्वरूप की उपलब्धि भी होती है। आवश्यक का सामान्य अर्थ होता है अवश्य करणीय नित्य कर्म। आगमों में आवश्यक को अनेक दृष्टियों से परिभाषित किया है। जो क्रिया ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप रत्नत्रयी की साधना एवं प्रति नियत काल में अनुष्ठेय है वह आवश्यक कहलाती है। यह समस्त गुणों का आश्रय स्थल है। ___आवश्यक मात्र कोई एक क्रिया नहीं यह छ: विविध क्रियाओं का समूह है। इसी कारण इसे षडावश्यक कहा जाता है। सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान इन छ: क्रियाओं को संयुक्त रूप में षडावश्यक संज्ञा दी गई है। इस शोध श्रृंखला में ग्यारहवें क्रम पर इन्हीं छ: आवश्यकों का वर्णन किया है। षडावश्यक एक मौलिक साधना कैसे? जैन परम्परा में षडावश्यक का वही महत्त्व है जो वैदिक परम्परा में संध्या, मुसलमानों में नमाज, ईसाईयों के लिए प्रार्थना, योगियों के लिए प्राणायाम का है। यह अपने आप में इतनी विराट साधना है कि इसमें यौगिक यम-नियम एवं गीता के ज्ञान, भक्ति और कर्मयोग का समावेश हो जाता है। आत्म विशुद्धि के लिए यह एक क्रमिक चरण है तथा सफल आध्यात्मिक जीवन के लिए परमावश्यक है। इसकी प्रत्येक क्रिया साधक में समत्व गुण का विकास, विभाव दशा का निकास एवं सद्गुणों का आभास करवाती है।
SR No.006238
Book TitleJain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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