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शोध प्रबन्ध सार ... 103 स्वरूप पर विमर्श किया गया है। आलोचना किन स्थितियों में किसके समक्ष करें ? शुद्ध आलोचना के लिए पूर्व में किस प्रकार की तैयारी करें ? आलोचना करने की आवश्यकता क्यों है ? आलोचना दाता एवं आलोचक में किन गुणों को आवश्यक माना है ? आलोचना किस क्रम से एवं किन परिस्थितियों में करें? आलोचना न करने के दुष्परिणाम आदि पर विचार किया है।
पाँचवें अध्याय में आलोचना एवं प्रायश्चित्त विधि के ऐतिहासिक विकास क्रम की चर्चा की गई है।
जैन दर्शन आचार एवं विचार प्रधान दर्शन है। आलोचना वैचारिक जगत को ऊँचा उठाने की प्रक्रिया है और प्रायश्चित्त आचार पक्ष को निर्मल करता है अतः प्रारंभकाल से ही मानव जगत में इसका वैशिष्ट्य रहा है। प्रस्तुत अध्याय में आगम युग से अब तक प्रायश्चित्त सम्बन्धी ग्रन्थों का उल्लेख किया है।
इसी का विशिष्ट विश्लेषण करते हुए षष्ठम अध्याय में पूर्वापर क्रम को ध्यान में रखते हुए जैन एवं जैनेतर साहित्य में प्रतिपादित प्रायश्चित्त विधियाँ एवं उनका तुलनात्मक पक्ष दर्शाया गया है।
प्रायश्चित्त दान का अधिकारी आचार्य या गीतार्थ मुनि को ही माना है। वर्तमान में जीत व्यवहार के अनुसार प्रायश्चित्त दिया जाता है। अत: इस अध्याय में श्वेताम्बर मान्य विधिमार्गप्रपा एवं आचार दिनकर के अनुसार जीत व्यवहार बद्ध प्रायश्चित्त कहा गया है तथा उसकी क्रमबद्ध विवेचना की गई है। इसी के साथ वैदिक एवं बौद्ध ग्रन्थों में निरूपित प्रायश्चित्त विधि भी बताई गई है। इससे जन साधारण सुगमता पूर्वक इस विषय का ज्ञान प्राप्त कर पापों से विरत हो सकेंगे।
सातवें अध्याय में उपसंहार की दृष्टि से प्रायश्चित्त दान की विविध कोटियों का आगम अनुसार निरूपण किया गया है।
इस खण्ड लेखन का उद्देश्य मुख्य रूप से समाज में नैतिक, व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक अपराधों के प्रति जागृति लाना, अपराध बोध की भावना उत्पन्न करना, अपराधों को न्यून करते हुए एक मर्यादित एवं आचार दृढ़ आदर्श समाज का निर्माण करना है।