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शोध प्रबन्ध सार ... 95
प्रायश्चित्त सम्बन्धी विधि-विधान अनेक ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं। ईसाई परम्परा में पादरी के आगे Sin confettion की क्रिया एक प्रकार का प्रायश्चित्त ही है। मूलत: जिस क्रिया से चित्त विशुद्ध होता है अथवा जो आत्मशुद्धि का प्रशस्त हेतु है उसे प्रायश्चित्त कहा गया है।
जैनाचार्यों के अनुसार सामान्यतः गृहस्थ साधक द्वारा यथायोग्य व्रत एवं नियमों का पालन करते हुए तथा मुनि द्वारा परिस्थिति या प्रमादवश संयम साधना करते हुए अर्हत् प्ररूपित धर्म या मर्यादाओं का उल्लंघन हो जाए अथवा अकरणीय कार्यों का सेवन हो जाए तब संसार भीरू आत्माएँ उनका शीघ्रातिशीघ्र आलोचन कर लेती हैं।
प्रायश्चित्त आध्यात्मिक एवं नैतिक जीवन का आवश्यक अंग है। जिस प्रकार नदी-नालों में प्रवाहित नीर कई स्थानों के कूड़े-कचरे, मिट्टी आदि के मिश्रण से मलिन हो जाता है तब फिल्टर आदि यान्त्रिक साधनों के प्रयोग से उस जल को स्वच्छ एवं निर्मल किया जाता है । उसी प्रकार अनादिकाल से परिभ्रमण कर रही आत्मा मोह - मिथ्यात्व, विषय- कषाय आदि राग-द्वेषात्मक परिणतियों से दूषित है। आत्मार्थी साधक आलोचना एवं प्रायश्चित्त रूपी रसायन के द्वारा उसे निर्मल करके मोक्ष पथ पर आरूढ़ कर सकता है।
भगवान महावीर के शासनवर्ती गृहस्थ एवं मुनि को सामान्य पापों की आलोचना प्रतिदिन करनी चाहिए, क्योंकि काल दोष के प्रभाव से जानेअनजाने में दुष्कर्मों का आसेवन हो जाता है। अतः जिस प्रकार रोगी औषध के साथ पथ्य का परिपालन करता है तभी आरोग्य की प्राप्ति होती है उसी प्रकार संयम, शील, व्रत आदि धर्माराधनाओं का धारक एवं सद्गति इच्छुक श्रावक धर्म अनुष्ठान रूपी औषध के साथ प्रायश्चित्त रूपी पथ्य का भी आसेवन करते हैं और यथार्थतः तभी वे चिरस्थायी मोक्ष सुख के उपभोक्ता बन सकते हैं।
प्रायश्चित्त का स्वरूप - 'प्रायश्चित्त' श्रमण संस्कृति का आधारभूत शब्द है। अध्यात्म मार्ग में लगने वाले दोषों से परिमुक्त होने के लिए जो दण्ड दिया जाता है, आगमिक भाषा में उसे प्रायश्चित्त कहा गया है। जैनाचार्यों ने भाव विशोधक एवं कर्म विनाशक क्रिया को प्रायश्चित्त कहा है । सार रूप में कहें तो जिससे संचित पापकर्म नष्ट होते हैं, जो चित्त का प्रायः विशोधन करता है और आभ्यंतर तप का प्रथम भेद रूप है, वह प्रायश्चित्त है ।