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________________ 96... शोध प्रबन्ध सार शास्त्रकारों ने प्रायश्चित्त के दस प्रकार बताये हैं। समस्त प्रकार के पापकर्म इन दस प्रकारों के आचरण से आत्म पृथक हो जाते हैं। प्रायश्चित्त के समान आलोचना शब्द भी इसी संदर्भ में प्रयुक्त किया जा सकता है। अपने जीवन और साधना में जो भी दोष लगे हों उन दोषों या अपराधों को गुरु के समक्ष शुद्ध भाव से प्रकट करना आलोचना है। आलोचना स्व निंदा की प्रक्रिया है । स्वयं के दोषों को देखकर अपनी निन्दा करना कठिनतर कार्य है। जिसका मानस बालक के सदृश निश्चल एवं सरल हो वही अपने दोषों को प्रकट कर सकता है। आलोचना की आवश्यकता क्यों? आगम शास्त्रों में स्पष्ट निर्देश है कि जब तक कृत पापों की आलोचना नहीं की जाती तब तक वह हृदय में शल्य बनकर रहते हैं। शल्य के साथ साधक कभी आराधक नहीं बन सकता। आचार्य हरिभद्रसूरि कहते हैं कि जो व्यक्ति लज्जा, शारीरिक स्थूलता, तप अरुचि या श्रुतमद आदि के कारण अपने दुष्कर्मों को गुरु के समक्ष प्रकट नहीं करते वह सफल आराधक नहीं हो सकता है। वहीं योग्य गुरु के समीप आलोचना करने से संवेग और सत्त्वगुण में वृद्धि होती है। गुरुकृपा प्राप्त होने से दुष्कर्मों को निष्फल करने की शक्ति प्रकट होती है। आलोचना के द्वारा पाप आचार से मलिन हुई आत्मा शुद्ध होती है। पूर्वकृत दोषों की आलोचना किए बिना पुरुषार्थ जारी रखने पर भी साधना की इमारत दीर्घ समय तक टिक नहीं सकती। पैर में लगे हुए शूल को जब तक दूर नहीं किया जाए तब तक पद यात्रा संभव नहीं होती। वैसे ही जब तक पाप रूपी काँटे को दूर नहीं किया जाए तब तक साधना के शिखर पर आरोहण नहीं किया जा सकता। यदि इहभव कृत आलोचना संपूर्णत: शुद्ध विधि से की जाए तो उन पापों के प्रति उत्पन्न हुआ तिरस्कार भाव जन्म-जन्मांतर के पापों को समूल रूप से नष्ट कर देता है। पापों के प्रति उत्पन्न हुआ जुगुप्सा भाव दृढ़ प्रहरी, मृगावती, अर्जुनमाली की भाँति मोक्ष पहुँचा सकता है अतः आत्मा को विशुद्धि पथ पर अग्रसर करने के लिए आलोचना एक अत्यावश्यक क्रिया है। आलोचना का महत्त्व - साधक जीवन में आलोचना एवं प्रायश्चित्त का अत्यधिक महत्त्व है। आलोचना के द्वारा ही साधक की साधना परिशुद्ध होती
SR No.006238
Book TitleJain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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