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________________ 94...शोध प्रबन्ध सार उजमणाथी तपफल वाधे, इम भाखे जिनरायो । ज्ञान गुरु उपकरण करावो, गुरुगम विधि विरचायो रे महावीर जिनेश्वर गायो...। षष्ठम अध्याय में तप का ऐतिहासिक अनुशीलन एवं उसका तुलनात्मक पक्ष प्रस्तुत किया गया है। इसी के साथ तप को शोभित करने हेतु एवं तप पूर्णाहुति की अनुमोदना निमित्त किए जाने वाले उद्यापन महोत्सव का महत्त्व दर्शाया गया है। ___ इस खण्ड का समापन करते हुए सप्तम अध्याय उपसंहार रूप में प्रस्तुत किया है। इस अध्याय में तप को सार्वकालिक सिद्ध करते हुए आधुनिक समस्याओं, मनोविज्ञान, प्रबंधन, समाज आदि विविध परिप्रेक्ष्यों में तप की आवश्यकता को स्पष्ट किया है। ___ खंड-9 की शोध यात्रा के माध्यम से हम असत्य से सत्य, अंधकार से प्रकाश, मृत्यु से अमरत्व, तलहटी से शिखर की यात्रा करते हुए परमोच्च अणाहारी पद को उपलब्ध कर सकेंगे। क्योंकि "भव कोडी संचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जई" करोड़ों भवों के संचित कर्म तप से ही निर्जरित होते हैं। खण्ड-10 प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के संदर्भ में जैन धर्म में आचार शद्धि पर सर्वाधिक बल दिया गया है। व्यक्ति का आचार और विचार जितने शुद्ध होते हैं वह प्रगति पथ पर उतनी ही त्वरित गति से अग्रसर होता है। आत्म विशुद्धि प्रतिपल बढ़ती जाती है। जैनाचार्यों ने आचार पालन के बारे में अत्यंत सूक्ष्म निरूपण करते हुए कहा है कि स्वप्न में यदि कोई असत् क्रिया हो जाए तो उसका भी गुरु के समक्ष निवेदन करना चाहिए। दसवें खण्ड में पाप निवेदन की विधि ही बतलाई गई है। भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही चित्त विशुद्धि एवं अपराधों की शुद्धि हेतु प्रायश्चित्त ग्रहण की परम्परा रही है। जैन, बौद्ध और हिन्दू ग्रन्थों का अनुशीलन करें तो
SR No.006238
Book TitleJain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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