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शोध प्रबन्ध सार ...93 प्रचलन में आए। कुछ तपों की प्ररूपणा गीतार्थ आचार्यों ने देश-काल के अनुसार की और कई तप लौकिक एवं सामाजिक प्रभाव से भी जैन साधना में प्रविष्ट हुए । चर्चित अध्याय में मुख्यतया श्वेताम्बर परम्परा में प्रवर्तित तपों का सविधि एवं सोद्देश्य वर्णन करते हुए उनका मूल पाठ भी दिया है। सर्वप्रथम श्वेताम्बर ग्रन्थों में वर्णित तपश्चर्या सूची दी गई है । तदनन्तर तपों को मुख्य पाँच श्रेणियों में विभाजित करते हुए केवली प्ररूपित, गीतार्थ मुनियों द्वारा प्ररूपित, फल आकांक्षा से किए जाने वाले तप, अर्वाचीन परम्परा में प्रचलित लौकिक एवं लोकोत्तर तप का स्वरूप बताया है । अन्त में दिगम्बर परम्परा में प्रचलित विशिष्ट तपों का वर्णन किया गया है।
इसके माध्यम से तपाराधक विभिन्न तपों को जानकर समुचित तप मार्ग पर अग्रसर हो सकेंगे।
इस कृति के पंचम अध्याय में भारतीय परम्परा में प्रचलित व्रतों का सामान्य स्वरूप रेखांकित किया है। वैसे इस अध्याय में मुख्यतया हिन्दू, बौद्ध, ईसाई एवं इस्लाम धर्म के व्रतों एवं पर्वोत्सवों का संक्षिप्त वर्णन किया गया है।
यह तथ्य हम कई बार उल्लेखित कर चुके हैं कि विभिन्न धर्म परम्पराओं में तप का विशिष्ट महत्त्व रहा हुआ है। भारतीय संस्कृति इसी कारण तप प्रधान संस्कृति कहलाती है। सभी परम्पराओं में व्रत और पर्वों को हमारी लौकिक एवं लोकोत्तर उन्नति का सशक्त साधन माना है । व्रताचरण के द्वारा मनुष्य को आदर्श जीवन की योग्यता प्राप्त होती है। संकल्प शक्ति दृढ़ होती है तथा स्वास्थ्य लाभ की भी प्राप्ति होती है। धर्म प्रवर्त्तकों के द्वारा अनेक दृष्टियों से विविध आचारों का उत्कीर्तन किया गया है यह अध्याय इसी की पुष्टि करते हुए तप की सार्वभौमिक महत्ता को सिद्ध करता है ।
उद्यापन (उजमणा) तप साधना से सम्बन्धित एक विशिष्ट क्रिया है । किये हुए तप का सम्यक प्रकार से अनुमोदन करना, उसे शोभित करना, कीर्तित करना उजमणा कहलाता है। उद्यापन क्रिया तप फल में वृद्धि करती है । तप पूर्ण होने पर उसके मंगल रूप उद्यापन को आवश्यक माना है।
उपाध्याय वीर विजयजी की यह पंक्तियाँ उद्यापन के स्वरूप का सुंदर दर्शन करवाती है