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88...शोध प्रबन्ध सार
फिर बाह्य तप की क्या आवश्यकता?
बाह्य एवं आभ्यंतर तप दोनों का अपना स्वतंत्र मूल्य है। दूसरी बात यह है कि जब तक प्रयोग द्वारा किसी क्रिया से न जुड़ा जाए तब तक हर किसी को भाव में रस आए यह आवश्यक नहीं क्योंकि भाव क्रिया एक ऊँची Stage है
और संसारी मनुष्य के लिए द्रव्य आलंबन के बिना सीधा भावों से जुड़ना कठिन है। तीसरा तथ्य यह है कि जैसा बाहर होता है वैसे ही भाव अंदर भी आते हैं। बाहर में गरिष्ठ भोजन खाकर शरीर को हृष्ट-पुष्ट किया जाए और यह सोचें की आभ्यंतर शुद्धि रहेगी तो यह संभव नहीं है, क्योंकि आहार हमारे शरीर और मन दोनों को प्रभावित करता है। शारीरिक राग न्यून नहीं हो तब तक सेवा आदि कार्य भी नहीं हो सकते।
तप द्वारा देह दण्डन अहिंसक कैसे? कई लोगों का मत है कि तप द्वारा शरीर को कष्ट देना भी एक प्रकार की हिंसा है। तो फिर अहिंसा प्ररूपक जैन धर्म में तप की महत्ता कैसे?
इस प्रश्न के समाधान से पूर्व हिंसा या अहिंसा की सही परिभाषा समझना आवश्यक है। जिस कार्य के द्वारा किसी की आत्मा या शरीर पीड़ित हो वह हिंसा है, परन्तु तपस्या में इच्छापूर्वक कष्टों को सहन किया जाता है जो कि कर्म निर्जरा
और देह आसक्ति को न्यून करने में हेतुभूत है। यह हिंसा की श्रेणी में नहीं आता। जिस प्रकार व्यापार के सीजन में दिन भर भूखा रहना भी कष्टप्रदायक नहीं लगता वैसे ही आत्मार्थी जनों को तप आदि की क्रिया देह दण्डन रूप न लगकर आनंददायक प्रतिभासित होती है।
तप साधना आवश्यक क्यों? यह प्रश्न प्रायः हर मन में उपस्थित होता है कि जब सभी धर्मों में आत्म विकास और भाव विशुद्धि के अनेक प्रकार बताए गए हैं उनकी प्राप्ति के लिए अनेक मार्गों का निरुपण किया गया है तो फिर तपश्चर्या को ही सर्वोत्तम स्थान क्यों दिया गया? साधकीय जीवन में तपोयोग आवश्यक क्यों?
इन बिन्दुओं पर यदि अनुशीलन करें तो यह ज्ञात होता है कि धर्म तप रूप है, बिना तप के धर्माचरण अधूरा है तथा धर्म बिना जीवन पशु तुल्य माना गया है। अहिंसा, संयम और तप का समन्वय होने पर ही धर्म की पूर्णता होती है। अहिंसा धर्मरूपी प्रासाद की नींव है तो तप उस प्रासाद का शिखर है।