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शोध प्रबन्ध सार ...87 में हमारे समक्ष है। जैन परम्परा में आचरित तप का क्षेत्र इतना व्यापक है कि उसमें एक सुव्यवस्थित जीवन से लेकर मोक्ष प्राप्ति के सभी साधनों का समावेश हो जाता है।
बाह्य दृष्टि से तप का प्रत्यक्ष प्रभाव शरीर पर परिलक्षित होता है । तप के द्वारा देह कृश, निर्बल एवं कमजोर दिखाई देता है। कई लोगों की मान्यता है कि तपश्चर्या शरीर पीडन की क्रिया है क्योंकि उपवास, आयंबिल आदि को ही मुख्य रूप से तप रूप में पहचाना जाता है । आर्य संस्कृति में तप को साधना का महत्त्वपूर्ण अंग माना है। तप को परिभाषित करते हुए भी प्रायः यही कहा जाता है कि जिस क्रिया के द्वारा तपा जाता है या शरीर को तपाया जाता है वह तप है। शास्त्रों में तपस्वियों के सम्बन्ध में वर्णन आता है- “सुक्खे - लुक्खे, निम्मंसे" अर्थात तपस्वी का शरीर तप के द्वारा लुखा- सुखा, मांस- रक्त रहित हड्डियों का ढ़ाँचा मात्र बन जाता है। तब प्रश्न उठता है कि तप का अर्थ मात्र शरीर को तपाना ही है ?
यदि सूक्ष्मतापूर्वक विचार करें तो बाह्य रूप से तप भले ही शरीर तपाने की क्रिया प्रतिभासित होती है परंतु इसका मुख्य हेतु आत्मा को तपाकर शुद्ध बनाना है। जिस प्रकार दूध गरम करने के लिए तपेली को भी गरम करना पड़ता है, उसी तरह आत्मा से संलग्न कर्मों को तपाने के लिए शरीर को तपाना पड़ता है। चिंतकों के अनुसार 'तन जीते मन जीत' यदि काया को वश में कर लिया जाए तो मन स्वत: ही स्थिर बन जाता है।
जैन आगमों का आलोडन करें तो शरीर पीडन रूप उपवास आदि तप तो मात्र तपश्चर्या का एक प्रकार है। तप के मुख्य दो प्रकार माने गए हैं- 1. बाह्य तप और 2. आभ्यंतर तप । यद्यपि लोक व्यवहार में उपवास, एकासना आदि को ही तप संज्ञा प्राप्त है परंतु यथार्थतः आभ्यंतर तप बाह्य तप से अधिक कठिन है। इसी के द्वारा अहंकार, कषाय आदि तप्त होकर गल जाते हैं। शास्त्रों के अनुसार जिसका जैसा सामर्थ्य हो उसे वैसी आराधना करनी चाहिये। बाह्य तप इन्द्रियों के प्रति आसक्ति, स्वाद लोलुपता, शरीर राग को कम करता है वहीं आभ्यंतर तप आन्तरिक गुणों में वृद्धि करता है और आत्म निर्मलता को बढ़ाता है। इससे विनय, मार्दव, आर्जव आदि गुणों में वृद्धि होती है।
कुछ लोग प्रश्न करते हैं कि आभ्यंतर तप से ही शुद्धि हो सकती है तो