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शोध प्रबन्ध सार ...89
जिस प्रकार लौकिक जगत में स्वर्ण की परीक्षा विभिन्न प्रकार से की जाती है और उन परीक्षाओं में खरा उतरने पर ही उसे सच्चे सोने के रूप में स्वीकृत किया जाता है उसी तरह धर्म की परीक्षा तप आदि क्रियाओं के माध्यम से ही होती है । आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने तप की अनिवार्यता दर्शाते हुए कहा हैनाणं पयासगं सोहओ तवो, संजमो य गुत्तिकरो ।
तिहंपि समाओगे, मोक्खे जिणसासणे भणिओ । ।
ज्ञान जगत के समस्त पदार्थों के स्वरूप को प्रकाशित करता है । तप अनादिकाल से आत्मा पर रहे हुए ज्ञानावरणीय आदि अष्टकर्मों के आवरण को दूर करता है। यद्यपि सभी जीव कर्मों का भोग करते हुए प्रति समय शुभाशुभ कर्मों की निर्जरा करते हैं परन्तु तप के माध्यम से जो निर्जरा होती है वह कर्म भोग की निर्जरा से कई गुणा अधिक होती है तथा संयम नए रूप में आने वाले कर्मों को रोकता है। शास्त्र वचन के अनुसार तप के द्वारा ही निकाचित कर्मों की निर्जरा हो सकती है। तप साधना का प्रयोजन- जैनाचार्यों ने तप की महिमा को अद्भुत और अकाट्य बताया है। सम्यक तप के प्रभाव से अचिन्त्य लब्धियाँ, अनुपम ऋद्धियाँ और अपूर्व सिद्धियाँ प्राप्त होती है। अज्ञानी जीव सांसारिक ऋद्धियों को प्राप्त करने हेतु तप करते हैं परन्तु शास्त्रकारों के अनुसार बाह्य सम्पदा या देवता आदि को प्रसन्न करने हेतु तप करना आम्र फल के महावृक्ष से लकड़ी की चाह करने के समान है। तप को तो आत्मशुद्धि के उद्देश्य से ही करना चाहिये। जैसे खेती करने पर धान्य के साथ भूसा आदि स्वयमेव प्राप्त हो जाते हैं वैसे ही तप के द्वारा भौतिक लब्धियाँ स्वयमेव ही प्राप्त हो जाती है।
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जिस प्रकार घी खाया हुआ छिपता नहीं है वैसे ही किया हुआ तप भी छिपता नहीं है। तपस्वी के चेहरे पर स्वतः ही एक विशिष्ट तेज चमकने लगता है। उसकी वाणी में सिद्धि, प्रसन्नता में वरदान तथा आक्रोश में श्राप की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। इसके लिए उसे किसी प्रयत्न की आवश्यकता नहीं रहती । अतः तप करने का उद्देश्य मात्र कर्म निर्जरा एवं आत्म विशुद्धि ही होना चाहिए ।
तप कामनायुक्त क्यों न हो? कई बार मन में प्रश्न उपस्थित होता है कि तप में इतने कष्टों को सहन करने के बाद उससे किसी प्रकार की अपेक्षा या कामना क्यों नहीं करनी चाहिए? इसके समाधान में जैनाचार्यों का मंतव्य है कि जैन धर्म सुखवादी धर्म नहीं मुक्तिवादी धर्म है। सुखवादी तो सिर्फ संसार के