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74... शोध प्रबन्ध सार
शिष्य को आगम पढाना, सूत्रार्थ प्रदान करना आदि वाचना दान कहलाता है। शिष्य के द्वारा गुरुमुख से विधिपूर्वक सूत्रार्थों का ग्रहण करना वाचना ग्रहण कहलाता है। इस परम्परा के माध्यम से आगम एवं आगम तुल्य ग्रन्थों का बहुमान एवं उत्कीर्तन होता है । शिष्य और गुरु का सम्बन्ध भी सुदृढ़ बनता है। आगम ज्ञान की परम्परा प्रवर्तमान रहती है।
वर्णित अध्याय में वाचनादान का अर्थ एवं परिभाषा को स्पष्ट करते हुए वाचनादान के योग्य कौन? वाचना के आदान-प्रदान से होने वाले लाभ ? योग्य शिष्य को वाचना देने के लाभ ? अयोग्य को वाचना देने पर लगने वाले दोष ? वाचना दान एवं ग्रहण के अपवाद, वाचना के प्रकार, सूत्रपाठ आदि सीखने हेतु वाचना का महत्त्व, अविधिपूर्वक वाचना दान एवं ग्रहण के दोष, वाचना दान की विधि आदि अनेक पक्षों पर इस अध्याय में शास्त्रोक्त मंतव्य दिया गया है।
इससे वर्तमान में सीमित होती वाचना विधि को एक नई दिशा प्राप्त होगी। इस खण्ड के तृतीय अध्याय में पद व्यवस्था की क्रमिकता को ध्यान में रखते हुए प्रवर्त्तक पदस्थापना विधि का मार्मिक स्वरूप बताया है।
प्रवर्त्तक जैन पद व्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण पद है। तप, संयम, वैयावृत्य आदि श्रेष्ठ कृत्यों में मुनियों को प्रवृत्त करने वाला प्रवर्त्तक कहलाता है। आचारचूला में निर्दिष्ट पद व्यवस्था के अनुसार प्रवर्त्तक पद का तीसरा स्थान है।
इस अध्याय में प्रवर्त्तक शब्द का अर्थ एवं परिभाषा बताते हुए प्रवर्त्तक पदधारी की योग्यता एवं तद्योग्य मुहूर्त की चर्चा की है। इसी क्रम में प्रवर्त्तक पद स्थापना विधि एवं इसका ऐतिहासिक विकास क्रम भी बताया है।
जिनशासन में स्थविर का गौरवपूर्ण स्थान माना गया है। कुछ आचार्यों ने स्थविर को भगवान की उपमा से अलंकृत किया है। अनुभव, वय एवं ज्ञान की दृष्टि से मुनि को स्थविर कहा जाता है। जो मुनि ज्ञान आदि की आराधना में अवसन्न या शिथिल हो जाते हैं उन्हें क्रियाओं में पुनः स्थिर करने का कार्य स्थविर ही करते हैं।
चतुर्थ अध्याय में स्थविर शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए स्थविर के प्रकार, स्थविरों के प्रति करणीय कृत्य, स्थविर - स्थविर कल्प एवं स्थविकल्पी का अर्थ, स्थविर पद के लिए आवश्यक योग्यता, शास्त्रानुसार स्थविर पदस्थापना विधि