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शोध प्रबन्ध सार ...73 मिलता है। दिगम्बर संघ में थेरी और गणिनी ये दो पद ही प्राप्त होते हैं। वर्तमान में प्रवर्त्तिनी, महत्तरा एवं गणिनी ये तीनों पद ही प्रचलित है ।
इन पदों का मूल उद्देश्य धर्म प्रभावना, संयम मार्ग की सुदृढ़ परिपालना एवं अनुशासन बद्धता ही रहा है। इसी के साथ इन पदों के माध्यम से समस्त चतुर्विध संघ का सुचारु संचालन हो सकता है।
यदि श्रावक-श्राविका समुदाय की अपेक्षा विचार करें तो यहाँ धार्मिक संघों में कोई पदव्यवस्था परिलक्षित नहीं होती। सामाजिक स्तर पर राजा, मंत्री, सेनापति राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, नगरसेवक, सरपंच आदि पदों की व्यवस्था अवश्य है।
खंड-7 का लेखन कार्य जन सामान्य को अनुशासन आदि का सही स्वरूप समझाने एवं जिनधर्म की पदव्यवस्था को प्रचलित करने के उद्देश्य से किया गया है। आज के समय में बढ़ती हुई पद लालसा, तनिमित्त होते द्वंद आदि को एक नई दिशा देने में भी यह अध्याय सहयोगी साबित होगा । प्रस्तुत शोध खण्ड की गवेषणात्मक एवं समीक्षात्मक शोध सामग्री को ग्यारह अध्यायों में विभाजित किया है जो इस प्रकार हैं
पद व्यवस्था संघ संचालन का परम आवश्यक अंग है। धर्म संघ का अनुशासन बद्ध सम्यक संचालन, नूतन आगंतुकों के मार्गदर्शन एवं अन्य सदस्यों के कुशल सम्पादन हेतु पद व्यवस्था आवश्यक है। इस पद व्यवस्था का सम्पादन हमें आगम युग से ही प्राप्त होता है।
प्रथम अध्याय में पद व्यवस्था के उद्भव एवं विकास की चर्चा करते हुए मुनिपद व्यवस्था की दृष्टि से आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्त्तक, स्थविर, गणि, गणधर, गणावच्छेदक आदि तथा साध्वी पद की दृष्टि से श्रमणी भिक्षुणी, निर्ग्रन्थिनी, आर्यिका, क्षुल्लिका, गणिनी, महत्तरा, अभिषेका, प्रतिहारी, स्थविरा आदि की सामान्य परिभाषाएँ बताई गई हैं।
इस अध्याय का लक्ष्य पदस्थापना विषयक विशद चर्चा करने से पूर्व जिनशासन में प्रचलित - अप्रचलित पदों की जानकारी देना है।
द्वितीय अध्याय में वाचना दान एवं वाचना ग्रहण विधि का मौलिक स्वरूप बताया गया है।
वाचना जैन परम्परा का एक पारिभाषिक शब्द है। योगवाही अथवा योग्य