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60... शोध प्रबन्ध सार
अपने द्वारा गृहित वस्तु किसी अन्य को नहीं दे सकते अन्यथा अदत्तादान के भागी बनते हैं। वहीं श्वेताम्बर आगमों में यह भी उल्लेख है कि जो साधु संविभाग करके नहीं खाता वह मोक्ष का अधिकारी नहीं बनता अतः संभोग विधि की महत्ता को देखते हुए इस अध्याय में मुख्य रूप से बताया गया है कि मुनि जीवन में समान सामाचारी का पालन करने वाले साधु-साध्वी के बीच आहार-वस्त्र-उपधि आदि का आदान-प्रदान हो सकता है। अन्य सामाचारी वालों के साथ आहार आदि करना निषिद्ध है। इन्हीं तथ्यों को स्पष्ट करते हुए इस अध्याय में संभोग का अर्थ, संभोग के प्रकार आदि की चर्चा की गई है।
पंचम अध्याय में मुनि धर्म की आराधना में उपयोगी उपधि एवं उपकरणों का सोद्देश्य स्वरूप बतलाया गया है। जिससे उन साधनों का सम्यक उपयोग हो सके।
चारित्र धर्म की आवश्यक क्रियाओं को सम्पन्न करने एवं संयम यात्रा के रक्षणार्थ कुछ जरूरी उपकरणों की आवश्यकता होती है। वस्त्र, कंबली आदि उपधि कहलाते हैं तथा पात्र, रजोहरण आदि उपकरण । जो पात्र आदि उपकरण रत्नत्रय की साधना में सहायक बनते हैं, उनका उपयोग भी विवेक एवं सावधानी पूर्वक होना चाहिए। अन्यथा कर्म निर्जरा के यह साधन कर्म बन्धन में हेतुभूत बनते हैं।
उपकरणों की इसी सूक्ष्मता को ध्यान में रखते हुए पाँचवें अध्याय में उपधि एवं उपकरण शब्द का अर्थ, उपधि के प्रकार, औधिक उपधि की संख्या, साध्वियों की उपधि का परिमाण एवं प्रयोजन ऐतिहासिक विकास क्रम आदि अनेक विषयों पर इस अध्याय में चर्चा की गई है।
प्रतिलेखना श्रमण जीवन का मूल आधार एवं श्रावक जीवन का प्राण है। अहिंसामय जीवन पद्धति का अभिन्न अंग है। जैन मुनि की प्रत्येक चर्या प्रतिलेखना प्रमार्जना पूर्वक होती है । दशवैकालिक सूत्र के अनुसार प्रत्येक क्रिया को जयणा एवं जागृतिपूर्वक करते हुए उसमें आत्मशोधन करना ही प्रतिलेखना काहार्द है।
षष्ठम अध्याय में प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए तत्सम्बन्धी नियमों का विवरण दिया गया है।
इसमें वस्त्र, पात्र, रजोहरण आदि उपकरण तथा वसति आदि का