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शोध प्रबन्ध सार
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जीवन की सफलता हेतु आवश्यक शिक्षाएँ आदि अनेक विषयों पर विस्तृत प्रकाश डाला है।
इस खण्ड के द्वितीय अध्याय में जैन साधु-साध्वियों के लिए उत्सर्गत: पालन करने योग्य दस कल्प, दस सामाचारी, बाईस परीषह, बावन अनाचीर्ण, अठारह आचार स्थान आदि सामान्य नियमों का सहेतुक वर्णन किया गया है।
जैन मुनि का जीवन एक नियमयुत मर्यादित जीवन कहलाता है। उन्हीं नियमों के कारण उनका जीवन एक उच्चादर्श के रूप में समाज के समक्ष प्रस्तुत होता है। मुनि धर्म के नियमोपनियमों का वर्गीकरण कई दृष्टियों से किया जा सकता है। कुछ नियम उस कोटि के होते हैं जो अनिवार्य रूप से परिपालनीय हैं। कुछ नियम उस स्तर के होते हैं जो उत्सर्ग और अपवाद के रूप में आचरणीय होते हैं। कुछ नियम इतने श्रेष्ठ हैं कि उनमें दोष लगने पर श्रमण स्वीकृत धर्म से च्युत हो जाता है तथा कुछ नियम इस श्रेणी के हैं जिनका भंग होने से मुनि धर्म खण्डित तो नहीं होता पर दूषित हो जाता है। ऐसे ही कुछ नियमों की चर्चा वर्णित अध्याय में उपरोक्त बिन्दुओं के रूप में की गई है।
जैन विधि-विधानों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन करते हुए पाँचवें खण्ड के इस तृतीय अध्याय में अवग्रह अर्थात स्थान आदि के ग्रहण सम्बन्धी विधि नियमों की भेद-प्रभेद सहित चर्चा की गई है।
अवग्रह जैन धर्म का आचार मूलक एक पारिभाषिक शब्द है। सामान्यतया अवग्रह का अर्थ ग्रहण करना होता है। मुनि विचरण करते हुए अपनी आवश्यकता अनुरूप अनेक वस्तुओं का ग्रहण श्रावक वर्ग या अधिकृत व्यक्ति आदि की आज्ञा से करते हैं। जैन साहित्य में अवग्रह शब्द के अनेक अर्थ किए गए हैं।
प्रस्तुत अध्याय में अवग्रह सम्बन्धी विधि-नियमों की चर्चा करते हुए अवग्रह का अर्थ, उसके प्रकारान्तर, अवग्रह ग्रहण करने का क्रम, अवग्रह की क्षेत्र सीमा, अवग्रह सम्बन्धी निर्देश, अवग्रह की आवश्यकता क्यों ? आधुनिक परिप्रेक्ष्य में अवग्रह विधि की उपादेयता आदि तत्सम्बन्धी अनेक विषयों पर चर्चा की गई है।
चतुर्थ अध्याय में साम्भोगिक विधि वर्णित की है। संभोग अर्थात मुनियों की बीच वस्तुओं का आदान-प्रदान। जैन मुनियों के लिए उल्लेख है कि वे