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अपभ्रंश-महाकाव्य
सीता का वर्णन करता हुआ कवि कहता है
दिय दित्ति जित्तई घत्तियाई इयरहह कहं विद्धइं मोतियाई । मुह ससि जोहर दिस धवल थाइ इयरह कह ससि झिज्जंतु जाइ ।
७०.११.५-६ अर्थात् सीता के दाँतों की दीप्ति से मोती जीते गये और तिरस्कृत हो गये अन्यथा क्यों वे बीं जाते ? मुख चन्द्र - चन्द्रिका से दिशाएँ धवलित हो गई अन्यथा क्यों शशि क्षीण होता ?
वियोग वर्णनों में मस्तिष्क को चमत्कृत करने वाली हाहाकार नहीं अपितु हृदय को स्पर्श करने वाली करुण वेदना की पुकार है । ऐसे स्थलों में वियोगी का दुःख उसके हृदय तक ही सीमित नहीं रहता । प्रकृति भी उसके शोकावेग से प्रभावित दिखाई देती है ।
सीता के वियोग से राम को जल विष के समान, और चन्दन अग्नि के समान दिखाई देता है । (म० पु० ७३. ३-८ )
इस प्रकार एक अन्य वियोगिनी का वर्णन करता हुआ कवि कहता है कि मलयाणिलु पलयाणलु भावइ भूसणु सण करि बद्धउ णावइ ।
व्हाणु सोय न्हाणु व णउ रुच्चइ वसणु वसणसंणिहु सा सुच्चइ ।
चंदणु इंधणु विरह हुया सहु
म० पु० २२. ९.
अर्थात् वियोगिनी को मलयानिल प्रलयानल के समान, भूषण सन के बन्धन के समान प्रतीत होता था । स्नान शोक स्नान के समान अच्छा नहीं लगता । वसन को वह व्यसन के समान समझती थी । चन्दन विरहाग्नि के लिए ईंधन के समान था इत्यादि ।
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वीर रस के वर्णनों में वीर रस का परिपाक करने के लिए भावानुकूल शब्द योजना की है । वीर रस के कठोर और संयुक्ताक्षरों के प्रयोग की परंपरा सर्वत्र नहीं दिखाई देती । कवि ने छन्द योजना, नाद सौन्दर्य और भाव व्यंजना के द्वारा वीर रस को उत्पन्न करने का प्रयत्न किया है । यथा-
भडु को वि भणइ जइ जाइ जीउ भडु को वि भणइ रिउ एंतु चंहु भडु को वि भणइ जइ मुंड़ पडइ
तो जाउ थाउ छुडु पहु पयाउ । मई अज्जु करेवउ खंड खंडु | तो महुं रुंडु जि रिउ हणवि गडइ |
म० पु० ५२. १२. २-३ अर्थात् कोई भट यह कहता है कि प्राण जाय तो भले ही जाय किन्तु स्वामी का प्रभाव स्थिर रहे । कोई भट कहता है कि प्रचंड शत्रु को आते देख आज में उसे खंड खंड कर दूंगा । अन्य भट कहता है कि यदि शिर कट कर गिर गया तो भी घड़ शत्रु को मारने के लिए नाचता फिरेगा ।