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अपभ्रंश-साहित्य
टवर्गाक्षरों के प्रयोग के साथ-साथ भटों के हृदय में उत्साह की व्यंजना भी है। इसी प्रसंग में कवि कहता है
वह कासु वि देह ण दहिय तिलउ अहिलसह वरिपहिरेण तिलउ । बहु कासु थिवइ ण अक्खयाउ खलवइ करि मोतिय अक्खयाउ।
५२. १३. ४-५ अर्थात् किसी युद्धोन्मुख योद्धा की वधू उसे दधि तिलक नहीं लगाती, वह उसे बरी के रुधिर से तिलक करना चाहती है। किसी की वधू अपने पति को अक्षत का टीका नहीं लगाती, वह शत्रु के हाथियों के मोतियों से टीका करना चाहती है।
भारतीय वीरांगना का यह स्वरूप उत्तरकालीन भारत की राजपूत नारी में विशेष रूप से परिस्फुटित होता है। ___इसी प्रकार एक दूसरे की ओर बढ़ती हुई दो सेनाओं का वर्णन करता हुवा कवि कहता है
चल चरण चार चालिय धराई डोल्लाविय गिरि विवरंतराई। इलहलिय घुलिय विर विसहराई भयतसिर रसिय घण घणयराइं। झलमलिय वलिय सायर जलाई जल जलिय काल कोवाणलाई। पय हय रय छइय णहंतराइं अणलक्खिय हिमयर दिगयराइं। करि वाहणाई सपसाहणाई हरि हरि गीवाहिव साहगाई। मायई अण्णण्णहु समुहाइं असिदादालई णं जंव मुहाई।।
५२. १४.८-१३ परंपरानुकूल कठोर शब्दों का प्रयोग यद्यपि नहीं तथापि भावव्यंजना तीवता से हुई है।
इसी प्रकार युद्ध के लिए चलती हुई सेना के वर्णन में कवि ने छन्द-योजना द्वारा ही सेना की गति का अंकन किया है।
शीघ्रता से बाण चलाते हुए लक्ष्मण के बाण संधान और बाण प्रहार की शीघ्रता का अनुमान निम्न छन्द की गति से हो जाता है
कहिं दिट्ठि मुट्ठि कहि चावलट्ठि ।
कहिं बद्ध ठाणु कहिं णिहिउ बाणु। ७८. ९.३-४ निवेद भाव को जागृत करने वाला संसार की असारता का प्रतिपादक एक उदाहरण लीजिये-- खंडयं-इह संसार वारणे , बहु सरीर संघारणे ।
वसिऊणं दो वासरा के के ण गया गरवरा ॥
१.
पय हय रय · · पासघात से उत्पन्न धूलि से जिसने आकाश भर रिया
था । सपसाहगाई-प्रसाधन, अलंकरण सहित । हरि-कृष्ण । जब मुहाइं-यम मुख ।