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अपभ्रंश-महाकाव्य
पुणु परमेसर सुसम् पयासइ घणु सुरषणु व खण पासइ । हय गय रह भड धवलइं छतइं सासयाइं णउ पुत्तु कलतई। नंपाणइं जाणइं षय चमरई रवि उग्गमणे जंति णं तिमिरई। लच्छि विमल कमलालय वासिणि णवजलहर चल बुह उवहासिणि । तणु लायण्णु वष्णु खणि खिज्जइ कालालि मयरंदु व पिज्जइ ।
वियलइ जोवणु करयलजलु णिवडइ माणुसु णं पिक्कउ फल ।' ७.१. अर्थात् इस दारुण संसार में दो दिन रह कर कौन से राजा यहां से न गये ? इसमें धन इन्द्रधनुष के समान क्षण में नष्ट हो जाता है। हाथी, घोड़े, रथ, भट, धवल छत्र, पुत्र, कलत्र कुछ भी स्थायी नहीं । पालकी, यान, ध्वजा, चामर सब सूर्योदय पर अन्धकार के समान विलीन हो जाते हैं। विद्वानों का उपहास करने वाली कमलालया जलघर के समान अस्थिर है। शरीर, लावण्य और वर्ण सब क्षण में क्षीण हो जाता है, काल भ्रमर से मकरंद के समान पी लिया जाता है । करतलस्थित जल के समान यौवन विगलित हो जाता है । मनुष्य पक्वफल के समान गिर पड़ता है। .. ____ इसी प्रकार संसार को असार बताने वाले और निर्वेद भाव को जगाने वाले अनेक स्थल है।
प्रकृति वर्णन-यहा पुराण में चरित नायकों के वर्णन के अतिरिक्त अनेक दृश्यों का मनोमुग्धकारी और हृदयहारी वर्णन कवि ने किया है । ऐसे स्थलों से महापुराण भरा हुआ है । सूर्योदय (म० मु० ४.१८.१९, १६.२६), चंद्रोदय (४. १६, १६.२४) सूर्यास्त (४. १५, १३.८)संध्या (७३.२), नदी (१२.५-८), ऋतु (२. १३, २८.१३, ७०.१४-१५), सरोवर (८३.१०), गंगावतरण (३९.१२-१३)आदि वर्णनों, में कवि का प्रकृति के प्रति अनुराग प्रदर्शित होता है ।
प्राकृतिक दृश्यों में कवि ने प्रकृति का आलम्बन रूप से संश्लिष्ट वर्णन किया है। और इनमें अनेक नवीन और मानव जीवन से संबद्ध उपमानों का प्रयोग हुआ है। अनेक स्थलों पर नवीन कल्पना का परिचय भी मिलता है । उदाहरण के लिये सूर्यास्त का वर्णन करता हुआ कवि कहता है
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सुसमु-सुन्दर शमयुक्त । सासयाई--शाश्वत । जंपाणई-पालकी। कालालि-काल रूपी भ्रमर से मकरंद के समान पान कर लिया जाता है। रमणिहिं सहुं रमणु णिविठ्ठ जाम, रवि अत्थ सिहरि संपत्सु ताम। रत्तउ दोसइ णं रइहि णिलउ, णं वरुणासा वहु घुसिण तिलउ । णं सग्ग लच्छि माणिक्कु हलिउ, रत्तुप्पलु णं णहसरहु घुलिउ । गं मुक्कउ जिण गुण मुखएण, णिय रायपुंज मयरद्धएण। भवदउ जलणिहि जलि पइट्ट, णं दिसि कुंजर कुंभयलु विठ्ठ। धुउ णिय छवि रंजिय सायरंभु, णं दिण सिरिणारिहि तणउ गम्भु ।