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अपभ्रंश-साहित्य
रक्त वर्ण सूर्य ऐसा प्रतीत होता है, मानो रति का निलय हो, या पश्चिमाशावधू का कुंकुम तिलक हो, मानो स्वर्ग लक्ष्मी का माणिका ढलक गया हो, या नभ-सरोवर का रक्त-कमल गिर पड़ा हो, अथवा जिन के गुणों पर मुग्ध हुए मकरध्वज ने अपना राग-पुंज छोड़ दिया हो, या समुद्र में अर्ध प्रविष्ट सूर्य-मंडल दिग्गज के कुम्भ के समान प्रतीत हो, निज छवि से सागर जल को रंजित करता हुआ सूर्य मानो दिनश्री-नारी के पतित गर्भ के समान गोचर हो । रक्तमणि भुवनतल में भटकते-भटकते वास को न पाकर मानो पुनः रत्नाकर की शरण में गया हो, अस्तंगत सूर्य ऐसा जान पड़ता है मानो जल भरती हुई लक्ष्मी का कनकवर्ण कलश छूट कर जल में डूब गया हो। संध्या के राग से रंजित पृथ्वी ने पृथ्वीपति के विवाह पर धारण किया हुआ कुसुंभी रंग का वस्त्र मानो अब उतारा हो।
निम्नलिखित सूर्यास्त वर्णन में कवि ने प्रकृति के साथ मानव जीवन का कैसा संश्लेष किया है
जिह फुरियउ दीवय दित्तिउ तिह कंताहरणह दित्तियउ । जिह संझा राएं रंजियउ तिह वेसा राएं रंजियउ । जिह दिसि दिसि तिमिरइं मिलियई तिह दिसि दिसि जारइं मिलियई। जिह रयणिहि कमलई मउलियई तिह विरहिणि वयणई मउलियई।
१३.८ अर्थात् जैसे दीपकों की दीप्ति स्फुरित हुई वैसे ही स्त्रियों के आभरणों की दीप्ति । जैसे संध्या राग से रंजित हो गई वैसे ही वेश्या भी। जैसे सब दिशाओं में अंधकार-मिलन होने लगा वैसे ही जार-मिलन । जैसे रात्रि के कमल मुकुलित हुए वैसे ही विरहिणी के मुख कमल ।
निम्नलिखित सन्ध्या वर्णन में प्रकृति और मानव का बिंब प्रतिबिंब भाव से वर्णन हैदुवई- माणव भवण भरह खेत्तोवरि वियरण गमिय वासरो। सीया राम लक्खणाणंदु व जामत्थमिओ दिणेसरो।
७३.२ कवि कहता है कि सीता हरण के अनन्तर सीता राम और लक्ष्मण के आनन्द के. अस्त हो जाने के समान सूर्य भी अस्त हो गया ।
आहिडिवि भुवणु अलद्ध वासु, णं गयउ रयण रयणायरासु।
लच्छीहि भरंतिहि कणयवण्णु, णिच्छुट्टवि कलसु व जलि णिमण्णु। पत्ता-पुण संझा देवयस दिस महि, रंजिवि राएं विष्फुरिय । कोसंभु चीर णं पंगुरिवि, गाह विवाहइ अवयरिय ॥
म० पु० ४-१५