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अपभ्रंश-महाकाव्य
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मानव जगत् और प्राकृतिक जगत् का बिम्ब प्रतिबिम्ब रूप से चित्रण निम्नलिखित उद्धरण में बहुत ही रम्य हुआ है । इस उद्धरण में अस्त होते हुए सूर्य और अस्त होते हुए शूरवीरों का वर्णन करते हुए सायंकाल और युद्धभूमि में साम्य प्रदर्शित किया गया है।
एतहि रणु कय सूरत्थवणउं एत्तहि जायउं सूरत्थवण। एतहि वीरहं वियलिउ लोहिउ एतहि जगु संझारुइ सोहिउ । एत्तहि कालउ गयमय विब्भमु एत्तहि पसरइ मंदु तमीतम् । एत्तहि करिमोत्तियइं विहत्तई एतहि उग्गमियइं णक्खत्तई। एत्तहि जयणरवइ जसु धवलउ एतहि धावइ ससियर मेलउ । एत्तहि जोह विमुक्कई चक्कई एत्तहि विरहें रडियई चक्कइं। कवणु णिसागमु कि किरतहि रणु एउण बुज्मइ जुज्मइ भडयणु।
२८. ३४. १-७ अर्थात् इधर रणभूमि में सूर-शूरवीरों-का अस्त हुआ और उधरसायं काल सूर-सूर्यका। इधर वीरों का रक्त विगलित हुआ और उधर जगत् सन्ध्या-राग से शोभित हुआ । इधर काला गजों का मद और उधर धीरे-धीरे अन्धकार फैला। इधर हाथियों के गंडस्थलों से मोती विकीर्ण हुए और उधर नक्षत्र उदित हुए । इधर विजयी राजा का धवल यश बढ़ा और उधर शुभ्र चन्द्र । इधर योधाओं से विमुक्त चक्र और उधर विरह से आक्रन्दन करते हुए चक्रवाक । उभयत्र सादृश्य के कारण योद्धागण निशागम और युद्धभूमि में भेद न कर पाये और युद्ध करते रहे। ___ इस सायंकाल और युद्ध भूमि के साम्य प्रतिपादन द्वारा कवि ने युद्धभूमि में सैनिकों, हाथियों, घोड़ों और अस्त्रों आदि की निविड़ता और तज्जन्य अन्धकार सदश धूलिप्रसार का अंकन भी सफलता के साथ किया है।
गंगा नदी के विषय में कवि कहता हैघत्ता-पंडुर गंगाणइ महियलि घोलइ किंणर सर सुह भंतहों। अवलोइय राएं छुडु छुडु आएं साडी गं हिमवंतहो।
१२. ५. २९-३० णं सिहरि घरारोहण णिसेणि णं रिसहणाह जसरयण खाणि ।
णं विसम विडप्प भउत्तसंति धरणियलि लोणी चंदकंति । णं णिद्ध धोय कल होय कुहिणि णं कित्तिहि केरी लहुय बहिणि । गिरि राय सिहर पीवर थणाहि णं हारावलि बसुहंगणाहि ।
सिय कुडिल तह जिणं भूइरेह णं चक्कवटि जय विजय लोह । ...............
............... णिग्गय णयवम्मीयहु सवेय विस पउर णाई णाइणि सुसेय । हंसावलि वलय विइण्णसोह उत्तर दिसि णारिहि णाईबाहु ।