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अपभ्रंश-साहित्य
बत्ता-बहु रपण णिहाणहु सटछु सुलोणहु धवल विमल मंथरगइ । सायर भत्तारह सई गंभीरतु मिलिय गंपि गंगाणइ।
१२.६ जहिं मच्छ पुच्छ परियत्तियाइं तिप्पि उडुच्छलियई मोत्तियाई । घेप्पंति तिसाहय गीयएहिं जल बिन्दु भणिवि बप्पीहएहिं। जल रिहिं पिज्जइ जलु सुसेउ तम पंजहिं णावई चंद तेउ। जहिं कीरउलईकीलारयाई दहि कुट्टिमि गावइ मरगया।
१२. ७. असणयणी विभमणाहि गहिर व कुसुम विमीसय भमर चिहुर। मन्जत कुंभि कुंभत्थणाल सेवाल णाल तंचलाल । तड डिवि गलिय मह सिण पिंग चल जल भंगावलि वलितरंग । सिय घोलमाण डिंडीर पीर पवणुदय तार तुसार हार ।'
१२. ८. अर्थात् शुभ्र गंगा नदी को महीतल में बहते हुए राजा ने देखा । वह हिमाचल की साड़ी के समान प्रतीत होती थी। वह गंगा मानो पर्वतशिखर-गृह पर चढ़ने के लिए सीढ़ी हो, मानो ऋषभनाथ के जय की रत्नखान हो, मानो कठोर राहु के भय से डरती हुई चंद्र कान्ति भूमितल में आ गई हो।
......मानो कीति की छोटी बहिन हो, गिरिराज शिखर रूपी पीवरस्तनी वसुधा-नारी का हार हो, मानो श्वेत और कुटिल भस्म रेखा हो, चक्रवर्ती राजा की जय विजय रेखा हो, मानो वल्मीक पर्वत से सवेग विष प्रचुर श्वेत नागिनी निकली हो, मानो उत्तर दिग्वधू की बाहु हो जिस पर हंस पंक्ति रूपी वलय शोभा दे रहा हो। धवल विमल मंथर गति वाली गंगा मानो बहुरत्न निधान, सुन्दर गम्भीर सागर भर्ती से मिलने के लिए जा रही हो।
जिस गंगा में मत्स्यों के पुच्छ से अभिहत और उच्छलित सिप्पियाँ मोतियों के समान प्रतीत होती है, जहाँ तृष्णा से शुष्क कंठ वाले पपीहे गंगा जल को साधारण जल बिन्दु कह कर फेंक देते है, जहाँ तमपुंज के चन्द्रतेज के पान के समान, जल काक शुभ्र जल पीते हैं, जहाँ क्रीडारत शुककुल दही के फर्श पर मरकत मणियों के समान प्रतीत होते हैं।
मत्स्य रूपी नयनों वाली, मावर्त रूपी गंभीर नाभि वाली, नवकुसुम-मिश्रित भ्रमर रूपी केशपाश वाली, स्नान करते हुए हाथियों के गंडस्थल के समान स्तन
१. विडप्प . . .--राहु के भय से डरती हुई । णय वम्भीयहु-वल्मीक पर्वत
से । सवेय-सवेग । परियत्तियाइं-प्रताड़ित । तिसाहयगीयएहिं-प्यास से सूखे कंठ वाले । नलरिट्ठहिं-जल काकों से । असणयणी-मत्स्य रूपी आंखों वाली।