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अपभ्रंश साहित्य
घरमिरि वासिणि जलपत्ति, णं लीय बसंकरि मंत सत्ति । महएवि तासु घर कमल लच्छि, गामेण मणोहर पंकच्छि' ।
२०. ९. १-७ मुणमंजरी वेश्या के शारीरिक सौन्दर्य के अतिरिक्त उसके आन्तरिक सौन्दर्य को भी प्रकट किया है
मत्त करिद मंद लोला गइगर मण गलिण गोमिली। कि बणमिरिच सत कामिणि कामिणियण सिरोमणी । दिस विबाहर रणरावा करबह पति पईहि सेवा। कुंचिय केतहं कतिह कालइ माणिणि मानव मावर मालह। सुललिय वाणि व सुकइहि केरी हि दोसइ तहि सा भल्लारी।
५४.२.२-५ सीता का सौंदर्य भी परंपराभुक्त नहीं ।
चड्ड परमेसरि दिग्य देह णं वीयायंबह तणिय रेह। णं ललिय महा-कइ पय पउत्ति णं मयण भाव विण्णाण जुत्ति । गं गण समग्ग सोहग्गयत्ति णं णारिरूव विरयण समत्ति । लायण्ण वत्त णं जलहि वेल सुरहिय गं घंपय कुसुम माल। थिर सूहव पं सप्पुरिस कित्ति बहुलक्खण णं वायरण वित्ति।'
७०. ९.९. नखशिख के परंपरागत वर्णन में भी कवि ने अपनी अद्भुतकला से अनुपम चमत्कार उत्पन्न कर दिया है। सुलोचना का वर्णन करता हुआ कवि कहता है कि
उसके पैरों को कमल के समान कसे कहूँ ? वह क्षणभंगुर है ऐसा कवियों ने नहीं सोचा । दिन में नक्षत्र कहीं नहीं दिखाई देते, मानो सुलोचना के नखों की प्रभा से नष्ट हो जाते हैं।
१. रइ सुहेल्लि-रति सुख युक्त । दुरिय संति-दुरित को शान्त करने
बाली। छण ससहर-क्षण शशधर, पूर्णिमा का चाँद । जापत्ति
कुबेर की भार्या। २. रावह रंजित करती है । कालइ-काला करती है।
ल्लारी- उत्तम स्त्री। ३. बीया यंबहु तंणियरेह = द्वितीया के चांद की कला। पय पउत्ति = पद
प्रयुक्ति । विरयण समत्ति = रचना, निर्माण की समाप्ति अर्थात् चरमोत्कर्ष। पायहु काई कमलु समु भणियांखण तं भंगुरु काहिं ण मुणियउं। रिक्खइं वासरि कहिमि ण दिठ्ठई कण्णा णह पहाहि णं ।
म. पु० २८. १२.८-९
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