________________
अपभ्रंश-महाकाव्य इनके अतिरिक्त मंदोदरी विलाप' तथा अन्य वियोग वर्णनों में भी कवि की भाव व्यंजना सुन्दरता से हुई है।
रस-रस की दृष्टि से काव्य में वीर, शृङ्गार और शान्त तीनों रसों की अभिव्यं. जना दिखाई देती है । प्रायः सभी तीर्थकर और चक्रवर्ती जीवनकाल में सुखभोग में लीन रहते हैं और जीवन के अन्त में संसार से विरक्त हो निर्वाण पद को प्राप्त करते हैं। जीवनकाल में भोग विलास की सामग्री स्त्री की प्राप्ति के लिए इन्हें अनेक बार युद्ध भी करने पड़ते हैं। ऐसे स्थलों में वीर रस का भी सुन्दरता से चित्रण हुआ है। इनके अतिरिक्त वासुदेवों और प्रतिवासुदेवों के संघर्ष में भी वीर रस के सरस उदाहरण मिल जाते हैं । किन्तु शृङ्गार और वीर दोनों रसों का पर्यवसान शान्त में ही होता हैं।
श्रृंगार रस की व्यंजना, स्त्रियों के सौन्दर्य और नखशिख वर्णन में विशेषतया दिखाई देती है । युद्धोत्तर वर्णनों में युद्ध के परिणामस्वरूप करुण रस और वीभत्स रस के दृश्य भी सामने आ जाते हैं। करुण रस का एक चित्र मंदोदरी-विलाप में दिखाई देता है। पत्ता
तातहि मंदोयरि देवि किसोयरि थण अंसुय धारहि धुवइ । णिवडिय गुण जल सरि खग परमेसरि हा हा पिय भणंति रुयइ ॥
७८. २१ पइं विणु जगि दसास जं जिज्जइ तं परदुक्ख समूहु सहिज्जइ । हा पिययम भणंतु सोयाउरु कंदइ णिरवसेसु अंतेउर ॥
___७८. २२. १२-१३ शृगार के संयोग और विप्रलम्भ दोनों रूपों को कवि ने अंकित किया है। शृङ्गार में केवल परम्परा का पालन ही नहीं मिलता जहाँ तहाँ रम्य उद्भावनाओं की सृष्टि भी कवि ने की है। । अलका के राजा अतिबल की रानी मनोहरा के प्रसंग में कवि कहता है
णं पेम्म सलिल कल्लोल माल, णं मयणहु केरी परमलील । णं चिंतामणि संदिण्ण काम, णं तिजग तरुणि सोहगसीम । णं रूव रयण संघाय खाणि, णं हियय हारि लायण्ण जोणि । गं थर सरहंसिणि रइ सुहेल्लि, णं घर महिरुह मंडणिय वेल्लि । णं धरवणदेवय दुरिय संति, णं घर छण ससहर बिब कंति ।
१. वही, ७८. २१-२२॥ २. वही, २२. ९ तथा २४.७। ३. म. पु. ५.१७, २८. १३; ७०.९.११ ।