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________________ ७८ अपभ्रंश - साहित्य मगध देश में राजगृह की शोभा का वर्णन करते हुए कवि कहता है --- धत्ता- जहिं दीसह तहिं भल्लउ जयरु णवल्लउ ससि रवि अन्त विहूसिउ । उवरि विलंबियतरणिहे सग्र्गे धरणिहे णावर पाहुड पेसिउ || म० पु. १. १५ राजगृह मानों स्वर्ग द्वारा पृथ्वी के लिए भेजा हुआ उपहार हो । इसी प्रकार ९३. २-४ में पोयण नगर का सुन्दर वर्णन है । धत्ता- तर्हि पोयण णामु णयह अस्थि वित्थिण्णउं । सुर लोएं णाइ धरिणिहि पाहुडु दिण्णउं ॥ ९२. २.११-१२ अर्थात् वह इतना विस्तीर्णं, समृद्ध और सुन्दर था मानो सुर लोक ने पृथ्वी को (भेंट ) दी हो। यह उत्प्रेक्षा अपभ्रंश कवियों को बहुत ही आकर्षक थी । स्वयंभू ने भी इसी कल्पना का प्रयोग विराट् नगर का वर्णन करते हुए किया यह ऊपर दिखाया जा चुका है ।' कालिदास के मेघदूत में और वाल्मीकि की रामायण में भी इसका प्रयोग मिलता है ऐसा ऊपर निर्देश किया जा चुका है । नगरों के इन विशद वर्णनों में कवि का हृदय मानव जीवन के प्रति जागरूक है मानो उसने मानव के दृष्टिकोण से विश्व को देखने का प्रयास किया हो । afa मानव हृदय का भी पारखी था । बाह्य जगत् की तरह आन्तरिक जगत् का भी सुन्दर वर्णन काव्य में मिलता है। ऐसे स्थल जहाँ कवि की भावना उद्बुद्ध होनी चाहिए, वह उबुद्ध दिखाई देती है । कवि भावुक है । भावानुभूति के स्थलों पर कवि हृदय ने इसका परिचय दिया है । सुलोचना के स्वयंवर में आये हुए राजाओं के हृद्गत भावों का विशद वर्णन इस काव्य में मिलता है । इसी प्रकार वाराणसी में लौट े हुए राम-लक्ष्मण के दर्शनों के लिए लालायित पुरवधुओं की उत्सुकता का चित्रण भी सुन्दर हुआ है। इसी प्रकार वसुदेव के दर्शन पर पुरवधुओं के हृदय की क्षुब्धता का वर्णन भी मार्मिक है । " १. पटटणु पइसरिय जं धवल-घरा केण वि कारेणेन णं सग्ग-खंड लंकरियउ । ओयरियउ ॥ २. मेघदूत, १. ३०, वाल्मीकि रामायण ५. ७. ६ । ३. पउम चरिउ २८. १९ । ४. वही, ७०. १६ । ५. वही, ८३. २-३ | रिटठ० च० २८.४
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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