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अपभ्रंश-महाकाव्य हुए कवि ग्रंथ का महत्त्व ग्रन्थ समाप्ति में असमर्थता आदि भाव अभिव्यक्त करता है । अपने से पूर्व काल के कवियों का उल्लेख करता है। आत्म विनय प्रदर्शित करता है। कथानक में अनेक कथायें अलौकिक घटनाओं और चमत्कारों से परिपूर्ण हैं। ऐसी घटनाओं के मूल में भी जिन-भक्ति है। पौराणिक कपोल कल्पना का प्राचुर्य है। प्रबन्ध निर्वाह भली भांति नहीं हो सका है।
कथानक के विशाल और विशृखल होने पर भी बीच-बीच में अनेक काव्यमय सरस और सुन्दर वर्णन मिलते हैं। जनपदों, नगरों और ग्रामों के वर्णन बड़े ही भव्य हैं। कवि ने नवीन और मानव जीवन के साथ संबद्ध उपमानों का प्रयोग कर वर्णनों को सजीव बनाया है। उदाहरण के लिए मगध देश का वर्णन करता हुआ कवि कहता है
महिं कोइल हिंडह कसण पिंड वण लच्छिहे गं कज्जल करंई।
महिं सलिम मालय पेल्लियाई रवि सोसण भएण व हल्लियाई। नहिं कमलहूं लच्छिइ सहुं समेह हंससहरेण वडिउ विरोहु । किर दो वि ताई महणु भवाई जाणंति मतं जर संभवइं।
जुज्संत महिस सहन्छवाइं मंथा मंथिय मंथणि रवाई।
म० पु० १.१२ अर्थात् जहाँ कृष्ण वर्ण कोयल वनलक्ष्मी के कज्जल पात्र के समान, विचरती है। यहाँ वायु से आन्दोलित जल मानों सूर्य के शोषण-भय से हिल रहे हैं। जहाँ कमलों मैं सक्ष्मी के साथ स्नेह और शशधर के साथ विरोध किया है यद्यपि लक्ष्मी और शशधर दोनों क्षीर सागर के मन्थन से उत्पन्न हुए हैं और दोनों जलजन्मा हैं किन्तु अज्ञानता से इस बात को नहीं जानते । जहां महिष और वृषभ का युद्धोत्सव हो रहा है । जहाँ मंथनतत्पर बालाओं के मन्थनी-रव के साथ मधुर गीत सुनाई पड़ते हैं।
१. म० ए० ६९. १. ७-८ २. वही ६९. १. ९-११ ३. घत्ता- पित्तउ जलणि जलंति तहि वि परिट्ठिउ अवियलु । जिण पय पोम रयासु अग्गि वि जायउ सीयलु ॥
म० पु० ३३. १० पत्ता--सतु वि मित्त हवंति विट्ठि वि भल्लउ वासरु । जिणु सुमिरंतहं होइ खग्गु वि कमल सकेसरु ।।
म० पु० ३३. ११