SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपभ्रंश महाकाव्य नहि-मंडयहो गहयल-रक्खसेण, फाडिउ जठर-पयेसु जिह ॥ अर्थात् समुद्र क्या है मानो नभतल राक्षस ने महिमंडल के जठर प्रदेश को फाड़ दिया हो। फटे हुए जठर प्रदेश में रक्त के बहने से एक तो समुद्र का रंग रक्तवर्ण होना चाहिए दूसरे इस उपमा से समुद्र की भयंकरता का भाव उतना व्यक्त नहीं होता जितना जुगुप्सा का भाव । इसी प्रकरण में कवि ने श्लेष से समुद्र की तुलना कुछ ऐसे पदाथों से की है जिनमें शब्द-साम्य के अतिरिक्त और कोई साम्य नहीं। इस प्रकार के प्रयोग बाण की कादम्बरी में प्रचुरता से उपलब्ध होते हैं। उदाहरण के लिएसूहब-पुरिसोग्य सलो-णसीलु ।...... दुज्जण पुरिसोंव्य सहाव-खाए। णिवण आलाउब अप्पमाण । जोइसव मोण-कक्कडय-पाणु । महकव्व-णिबन्धुष सद्द-गहिर । इत्यादि प० च०४९.३ अर्थात् समुद्र सत्कुलोत्पन्न पुरुष के समान है क्योंकि दोनों सलोणशील हैं अर्थात् समुद्र सलवणशील और सत्कुलोत्पन्न पुरुष सलावण्यशील । इसी प्रकार समुद्र दुर्जन पुरुष के समान स्वभाव से क्षार है । निर्धन के आलाप के सामान अप्रमाण है । ज्योतिमंडल के समान मीन कर्कट निधान है। महाकाव्य निर्बन्ध के समान शब्द गंभीर है। कवि प्रकृति के शान्त रूप की अपेक्षा उसके उग्ररूप का वर्णन करने में अधिक रुचि दिखाता है। भवभूति के समान धीमे-धीमे कल-कल ध्वनि से बहती हुई नदी की अपेक्षा प्रचंड वेग से उत्तंग तरंगावाली युक्त गरजती हुई नदी कवि को अधिक आकर्षित करती है।' कवि का गोदावरी नदी वर्णन देखिए थोवंतरे मच्छुत्थल्लदिति । गोला नइ दिट्ठ समुव्वहति । सुंसुयर घोरघुल-घुरु-हुरंति । करि-मय-रुड्डोहिय डुहु-डुहति । डिडोर-संड-मंडलिय दिति । डेडयर-रडिय डुरु-डुरु-डुरंति । कल्लोलुल्लोलहि उव्वहति । उग्घोस-घोस-घव-घव-घवंति । पडि खलण-वलण खल-खल-खलंति । खल-खलिय खडक्क सडक दिति । ससि-संख-कुंद-धवलो झरेण । कारंडुड्डाविय डवरेण । १. एते ते कुहरेषु गद्गद नदद्गोदावरी वारयो मेघा लम्बित मौलि नील शिखराः क्षोणीभूतो दक्षिणाः। अन्योन्य प्रतिघात संकुल चलत् कल्लोल कोलाहलेसत्तालास्त इमे गभीर पयसः पुण्याः सरित्संगमाः ॥॥ उत्तर राम चरित, २.३०
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy