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________________ ६४ अपभ्रंश साहित्य धत्ता - फेणावलि वंकिय, वलयालंकिय, णं महि कुल बहुम हेतणिय । जलनिहि भत्तारही, मोत्तिय-हारहो, वाह पसारिय वाहिणिय ॥ प० च० ३१. ३. भाषा अनुप्रासमयी है । भावानुकुल शब्द योजना है । शब्दों की ध्वनि नदीप्रवाह को अभिव्यक्त करती है । घत्ता में बड़ी सुन्दर कल्पना है । प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन करते हुए उनकी भिन्न-भिन्न दृश्यों या घटनाओं से तुलना करना या प्रकृति को उपमेय मान कर उसके अन्य उपमानों के प्रयोग की प्रणाली भी कवि ने अपनाई है । वन का वर्णन करता हुआ कवि कहता है : कत्थ वि उड्डाविय सउण-सया, णं अडविहे उड्डे बिगंणगया । णावइ णट्टावा जुयइ-जणे । संसारहो जिह पावइ याई । ण महि कुल बहुअहि रोम राई । प० च० ३६. १ सागरा मिमुख प्रवाहित होती हुई नर्मदा का अलंकृत वर्णन निम्नलिखित उद्धरण कत्थवि कलाव णच्वंति वणे, कत्थइ हरिणां भय-भी याई, कत्थवि णाणाविह रुकख राई, में देखिये णम्मयाद मयर-हरहो जंतिए, घव घवंति जे जल पब्भारा, पुलिइ बे वि जासु सच्छाय, जलु खलइ बलइ उल्लोलइ, जे आवत्त समुट्ठिय चंगा, जे जल हत्थि सयल कुंभिल्ला, जे डिंडीर यिरु अंदोलइ, जं जलयर रण रंगिउ पाणिउं, मत्त हस्थि मय मइलिउ जं जल, जाउ तरंगिणीउ श्रवर उहउ, जाउ भमर पंतिउ अल्लीणउ, गाइ पसाहण लइउ तुरंतिए । ते जि णाइ णेउर-भंकारा । ताइं जि ऊढणाइ णं जायई । रसणा दाम भंति णं घोलइ । ते जि गाइ तणु तिवलि तरंगा । ते जि णाई थण अध्धुम्मिल्ला । णावह सो जि हार रखोलइ । तं जि णाइ तंमोलु सवाणिउ । तं जिणाइ किउ श्रक्खिहु कज्जलु । ताइ जि भंगुराउ णं भउहउं । केसावलिउ ताउ णं विणणउ ॥ १४. ३ इस कड़वक में कवि ने नदी का प्रियतम से मिलन के लिये जाती हुई साज सज्जा युक्त एक स्त्री के रूप में वर्णन किया है । अर्थात् नर्मदा के शब्द करते हुए जल प्रवाह नूपुर झंकार के सदृश हैं, दोनों सुन्दर पुलिन उपरितन वस्त्र के सदृश हैं, स्खलित और उच्छलित जल रशनादाम की भ्रान्ति को उत्पन्न करता है, उसके आवर्त शरीर की त्रिवलि के समान हैं, उसमें जल हस्तियों के सजल गण्डस्थल अर्धोन्मीलित स्तनों के समान हैं, आंदोलित फेनपुंज लहराते हार के समान प्रतीत होता है,...इत्यादि ।
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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