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परिशिष्ट (३) संभव जिणणाह चरिउ
तेजपाल रचित 'संभव जिणणाह चरिउ' का वर्णन अपभ्रंश काव्यों के प्रसंग में असावधाणी से छूट गया। उसका संक्षिप्त वर्णन यहाँ परिशिष्ट में दिया जा रहा है।
यह ग्रंथ अप्रकाशित है । इसकी हस्तलिखित प्रति श्री चन्द्र प्रभु, दिगम्बर जैन सरस्वती भवन श्री दिगम्बर जैन मन्दिर, दीवाण अमर चन्द जी, जयपुर से प्राप्त हुई थी। इसकी रचना तेजपाल ने थील्हा के आश्रय में की थी। कवि के जीवन और रचना-काल के विषय में कुछ विवरण उपलब्ध नहीं।
ग्रंथ में छह सन्धियाँ और १७० कड़वक हैं। प्रत्येक सन्धि के अन्त में कवि ने अपने नाम का निर्देश किया है। ग्रंथ का आरम्भ निम्नलिखित मंगलाचरण से हुआ है
ओ३म् नमः सिद्धेभ्यः ॥ सासय सुहकारणु कुगइ णिवारणु चरिउ परम गुण गणणियरु । संभव जिण केरउ संति जणेरउ भणमि भव्व आणंदयरु ॥
मंगलाचरण के अनन्तर चौबीस तीर्थंकरों का स्तवन किया गया है। तदनन्तर कवि ने अपने आश्रयदाता थील्हा का परिचय दिया ह । ग्रंथ में परंपरागत सज्जन प्रशंसा और दुर्जन निन्दा भी मिलती है
घत्ता-अहवा किं दुज्जण धम्म विहजणु जइ विडप्पु वियरंतु णहि । सोलह कल भासउ ससि अमियासउ णउ चुक्कइ जंतु पहि ॥१.७
तदनन्तर जंबुद्वीप और तत्रस्थ भरत क्षत्र का उल्लेख कर कवि मगध देश का वर्णन करता है। वहाँ श्रेणिक महाराज के गणधर से पूछने पर वह जिणसंभव पुराण सुनाना आरम्भ करते हैं।
कवि ने धार्मिक भावना से प्रेरित होकर इस ग्रंथ का निर्माण किया है। निशि भोजन निषेध, दान, अहिंसा आदि षट्कर्मोपदेश प्रभृति भावना ही प्रमुख है
घत्तारय रयणि दिवायर गुणरयणायर जो छक्कम्म समायरइ ।
१. इय संभव जिण चरिए सावयायार विहाण फल सरिए
सिरि तेजपाल विरइए, सज्जण संदोह समणि अणुमण्णिए, सिरि महाभव्व थोल्हा सवण भूसणे सिरिविमल वाह . णिव धम्मायण्णणो णाम पढमो परिछेउं समत्तो ॥
सन्धि
१ ॥