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अपभ्रंश - साहित्य का हिन्दी-साहित्य पर प्रभाव
हर्षचरित में भी यही प्रवृत्ति दिखाई देती है ।' भवभूति भी मालतीमाधव में दुर्जनों को नहीं भूलते।
इस प्रकार आत्म-विनय की भावना भी नई नहीं । संस्कृत के कवियों में यह प्रवृत्ति टगोचर होती है । कालिदास रघुवंश के प्रारम्भ में ही सूर्यवंशी राजाओं के वर्णन प्रयास को ऐसा कठिन समझते हैं जैसे कोई छोटी सी नौका से महासागर को पार करने का प्रयत्न करे | 3
अतएव स्पष्ट होता है कि रामचरितमानस तथा अन्य हिन्दी प्रबन्धकाव्यों की मंगलाचरण, सज्जन- प्रशंसा, खल-निन्दा, आत्म-विनय आदि की प्रणाली संस्कृत साहित्य से अपभ्रंश में होती हुई हिन्दी - साहित्य में आई । इस प्रकार अपभ्रंश - साहित्य ने हिन्दी - साहित्य को प्रभावित किया ।
रामचरितमानस की चौपाई - दोहा पद्धति का बीज अपभ्रंश के चरिउ ग्रन्थों की कड़वक शैली में निहित है इसका ऊपर उल्लेख किया ही जा चुका है । इसी प्रकार रामचरितमानस की रामकथा का सरोवर या नदी रूप में वर्णन भी स्वयंभू के पउम चरिय में मिलता है इसका भी ऊपर निर्देश किया जा चुका है। सत्रांत यह कि अपभ्रंशकाव्य IT हिन्दी काव्य के बाह्य रूप पर पर्याप्त प्रभाव परिलक्षित होता है ।
महाकाव्य का लक्षण करते हुए आलंकारिकों ने बताया है कि प्रत्येक सर्ग में भिन्नभिन्न छन्द का प्रयोग होना चाहिये और सर्गान्त में छन्द परिवर्तित हो जाना चाहिये । इस छन्द - विविधता की दृष्टि से हिन्दी साहित्य में केशव की रामचन्द्रिका एक साहित्यिक महाकाव्य कहा जा सकता है । अपभ्रंश प्रबन्धकाव्यों में यद्यपि कड़वक शैली में कुछ एकरूपता ही है तथापि इस छन्द विविधता का भी अभाव नहीं । नयनन्दी के सुदंसण चरिउ,
विषं महाहेरिव यस्य दुर्वचः सुदुःसहं संनिहितं सदा सुखे ॥५ कटु क्वणन्तो मल दायकाः खलास्तुदन्त्यलं बन्धन श्रृंखला इव । मनस्तु साधु ध्वनिभिः पदे पदे हरन्ति सन्तो मणि नूपुरा इव ॥६
१. हर्ष चरित, निर्णय सागर प्रेस, बंबई, १९१८ ई० पृ० २ । प्रायः कुकवयो लोके राजाधिष्ठित दृष्टयः । कोकिला इव जायन्ते वाचाला कामकारिणः ॥ ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञां जानन्ति ते किमपि तान्प्रति नैष यत्नः । उत्पत्स्यते मम तु कोऽपि समानधर्मा कालो ह्ययं निरवधिविपुला च पृथ्वी ॥ मालती माधव, प्रथम अंक
क्व सूर्यप्रभवो वंशः क्व चाल्पविषयामतिः । तितीर्ष दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सगरम् ॥
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२.
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रघुवंश, प्रथम सर्ग