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अपभ्रंग- साहित्य
देवसेनगणि के सुलोचना चरिउ और पंडित लाखू के जिणदत्तचरिउ में छन्दों की विविधता के दर्शन होते हैं । ' इस प्रकार ये अपभ्रंश काव्य केशव की रामचन्द्रिका के इस अंश में पूर्व रूप कहे जा सकते हैं ।
अपभ्रंश - साहित्य और हिन्दी काव्य का कलापक्ष
अलंकार योजना की दृष्टि से अपभ्रंग - साहित्य में एक विशेषता दिखाई देती है कि अपभ्रंश कवियों ने अप्रस्तुत विधान के लिए पुरानी रूढ़ि का ही अन्धानुकरण नहीं किया। उन्होंने लौकिक जीवन से संबद्ध उपमानों का प्रयोग कर अपनी उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं को सरल और सुबोध बना दिया। इस प्रकार के उपमानों के प्रयोग से कविता का क्षेत्र प्राचीन परम्परा की संकीर्णता से निकल कर विस्तृत हुआ । कविता सर्व-साधारण की वस्तु बनी - वह सर्व साधारण के हृदय तक पहुँची । अपभ्रंश की यह प्रवृत्ति हिन्दी में भी दिखाई देती है । जयशंकर प्रसाद और सुमित्रानंदन पन्त के अनेक लाक्षणिक प्रयोगों में यह प्रवृत्ति दृष्टिगत होती है ।
अपभ्रंश कवियों की एक और विशेषता का पीछे निर्देश किया जा चुका है, वह है .. अनुरणनात्मक शब्दों का प्रयोग । भिन्न-भिन्न क्रियाओं और भावों को सूचित करने के लिए तदनुकूल शब्द-योजना के अनेक उदाहरण प्रबन्ध-काव्यगत अध्यायों में दिये जा चुके हैं। कुछ उदाहरणों से हमारा अभिप्राय स्पष्ट हो जायगा ।
“तड़ि तड़यss पड़इ घण गज्जइ जाणइ रामहो सरणु पवज्जइ" म० पु०
तोss asत्ति तणु बंधणई मोडइ कर्डात्ति हड्डई घणई । फाss चsत्ति चम्मई चलई घुट्टइ घडत्ति सोणिय जलई ॥ ( जस० च० २. ३७. ३४) "झिरिमिरि शिरिमिरि शिरिमिरि ए मेहा वरिसंति"
( सिरि थुलिभद्द फाग ) निम्नलिखित युद्धोद्यत सेना का दृश्य भी इसी प्रवृत्ति का परिचायक है : खुर खुर खुद खुद महि घघर रव कलइ,
णणण ण गिदि करि तुरअ चले ।" ( प्राकृत पैंगल )
इस प्रवृत्ति की अधिकता यद्यपि हिन्दी साहित्य में नहीं दिखाई देती किन्तु न्यूनाधिक रूप में जहाँ कहीं भी यह प्रवृत्ति दिखाई देती है वह अपभ्रंश के प्रभाव की ही सूचक है । शब्दों और वाक्यांशों की आवृत्ति से कथन को प्रभावोत्पादक बनाने की प्रवृत्ति भी अपभ्रंश में दिखाई देती है । पुष्पदन्त के महापुराण में इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं । हिन्दी - साहित्य में भी जहाँ कहीं इस प्रकार के उदाहरण मिलते हैं, उन पर अपभ्रंश साहित्य के प्रभाव की कल्पना की जा सकती है ।
१. देखिये पीछे सातवां अध्याय, पू० १७४, २२० और २२६