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________________ ४०० अपभ्रंश-साहित्य जाता है। यह बारहमासे का वर्णन हमें अपभ्रंश साहित्य में भी मिलता है । "नेमिनाथ चतुष्पदिका"' में भी हमें बारहमासे का यही रूप मिलता है । "धर्मसूरि स्तुति"२ में हमें बारहमासे का धार्मिक रूप मिलता है। ___ इस प्रकार स्पष्ट होता है कि हिन्दी साहित्य की रीतिकालीन प्रवृत्तियों की परंपरा अपभ्रंश-साहित्य से होती हुई हिन्दी में आई। वर्तमान उपलब्ध अपभ्रंश साहित्य से स्पष्ट है कि रीतिकालीन परंपरा की एक धारा अपभ्रंश काव्य में भी वर्तमान रही होगी। रीतिकाल की नखशिख आदि परंपरा का रूप जो हिन्दी साहित्य में हमें दिखाई देता है उसकी मूल प्रेरणा संस्कृत साहित्य से ही चली। संस्कृत के काव्यों में अंग प्रत्यंग का वर्णन मिलता ही है। कालिदास ने अपने कुमार संभव में पार्वती के नखशिख का मनोरम वर्णन किया है। इसी वर्णन में यह नियम विधान करना पड़ा कि देवता वर्णन चरणों से और मानव वर्णन सिर से प्रारम्भ हो। इस प्रकार अंग प्रत्यंग का यह वर्णन या नखशिख वर्णन संस्कृत साहित्य से अपभ्रंश साहित्य में होता हुआ हिन्दी साहित्य में आया। इस प्रकार हिन्दी-साहित्य के भिन्न-भिन्न कालों पर अपभ्रंश-साहित्य का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। प्रभाव से हमारा यह तात्पर्य नहीं कि हिन्दी-साहित्य में अनेक प्रवृत्तियाँ एकदम नई थीं या ये प्रवत्तियाँ सीधी अपभ्रंश-साहित्य में आविर्भूत हुई और वे उसी रूप में हिन्दी साहित्य में प्रविष्ट हो गईं। प्रभाव से हमारा यही अभिप्राय है कि भारतीय-साहित्य की एक अविच्छिन्न धारा चिरकाल से भरत खंड में प्रवाहित होती चली आ रही है । वही धारा अपभ्रंश-साहित्य से होती हुई हिन्दी-साहित्य में प्रस्फुटित हुई । समय-समय पर इस धारा का बाह्यरूप परिवर्तित होता रहा किन्तु मूलरूप में परिवर्तन की संभावना नहीं। अपभ्रंश-साहित्य और हिन्दी-काव्य का बाह्य रूप हिन्दी में प्रबन्ध-काव्यों की रचना शैली के उदाहरण स्वरूप रामचरितमानस और रामचन्द्रिका इन दो प्रबन्ध काव्यों का स्वरूप देखें तो उनकी रचना शैली पर कुछ प्रकाश पड़ेगा। मानस के आरम्भ में मंगलाचरण, सज्जन-प्रशंसा, दुर्जन-निन्दा, आत्म-विनय आदि दिखाई देता है। इसके अनन्तर कथा प्रारम्भ होती है । अपभ्रंश-साहित्य में भी यही प्रणाली हमें प्रायः सब प्रबन्ध काव्यों में दिखाई देती है, इसका निर्देश पीछे महाकाव्य और खंडकाव्य के अध्यायों में किया जा चुका है। यह प्रणाली एकदम नई नहीं। बाण, कादम्बरी में मंगलाचरण के अनन्तर खल-निन्दा और सज्जनों का स्मरण करते हैं।' १. देखिये चौदहवां अध्याय, अपभ्रंश स्फुट साहित्य, पृ० ३६६ । २. देखिये वही, पृ० ३७१। ३. कादम्बरी, निर्णय सामर प्रेस, बंबई, १९२१ ई० प्र० ३ । अकारणाविष्कृत वैर दारुणादसज्जनात्कस्य भयं न जायते ।
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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