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________________ अपभ्रंश-साहित्य इस से स्पष्ट प्रतीत होता है कि हिन्दी का संत काव्य सिद्धों की विचार धारा का ही परवर्ती विकास है । हमें तो संत शब्द की उत्पत्ति का स्रोत भी अपभ्रंश साहित्य कौ मुक्तक काव्य धारा ही प्रतीत होती है जिस में अनेक पद्यों में "शान्त" शब्द के स्थान पर संत शब्द का प्रयोग मिलता है । ३९४ भक्ति काल की दूसरी धारा जायसी आदि प्रेमाश्रयी कवियों के काव्य में दिखाई देती है । इन कवियों ने निराकार ब्रह्म में प्रेम तत्व का संमिश्रण कर भक्ति को सरस और हृदयग्राह्य बनाया । इन के प्रेमाख्यान, लौकिक आख्यान होते हुए भी आन्तरिक प्रेम या आध्यात्मिक तत्व की ओर ही संकेत करते दिखाई देते हैं । जायसी के पद्मावत के ढंग पर कुतुबन की मृगावती, मंझन की मधुमालती आदि कथायें भी लिखी गईं। इन सब 1 विशेषता है, लौकिक प्रेम कथा के साथ आध्यात्मिक तत्व की ओर संकेत । ये प्रेम कथायें प्राचीन प्रेम कथाओं की परंपरा में से हैं किन्तु दोनों की परिणति में भेद है । अपभ्रंश में जैनियों की प्रेम कथाओं का पर्यवसान वैराग्य में होता है । हिन्दी में सूफियों की शैली की प्रेम कथाओं का आधार अध्यात्मवाद है । कथा रूपक मात्र है जो आध्यात्मिक अर्थ की छाया है । इस धारणा से लौकिक प्रेम आध्यात्मिक प्रेम का प्रतीक मात्र है जिस का पर्यवसान वैराग्य में न होकर आध्यात्मिक प्रेम में परिपक्व होता है । इन कथाओं की कुछ अन्य बातें भी अपभ्रंश में मिलती हैं। नायक को नायिका की प्राप्ति के लिये समुद्र यात्रा करना, सिंहल यात्रा करना आदि का पहले अपभ्रंश -कथाओं के प्रकरण में उल्लेख किया जा चुका है । समुद्र यात्रा कर सिंहल द्वीप की किसी सुन्दरी कन्या और धन संपत्ति को प्राप्त -करना--- यह कथांश प्राचीन साहित्य में भी उपलब्ध होता है। संस्कृत भाषा में लिखित रत्नावली नाटिका में रत्नावली सिंहल की राजकुमारी थी ।' प्राकृत भाषा में लिखित कौतूहल कृत लीलावती कथा' की नायिका लीलावती भी सिंहल की राजकुमारी थी । अपभ्रंश भाषा में लिखित धनपाल कृत भविसयत्त कहा में व्यापार के लिये समुद्रयात्रा का वर्णन मिलता है । कनकामर कृत करकंडचरिउ * में भी करकंडु का सिंहल जाना और वहाँ रतिवेगा नामक सुन्दरी से विवाह करना वर्णित है । इसी प्रकार जिनदत्त चरिउ में नायक सिंहल द्वीप की यात्रा करता है और वहां की राजकुमारी लक्ष्मीवती को प्राप्त करता है । इन विविध उल्लेखों के आधार पर ऐसा अनुमान किया गया है कि सिंहल यात्रा का सम्बन्ध संभवतः किसी परंपरागत लोक कथा से होगा जिसके -- १. रत्नावली नाटिका, अंक ४ । २. डा० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये द्वारा संपादित, भारतीय विद्या भवन, बम्बई से प्रकाशित, १९४९ ई० । ३. देखिये छठा अध्याय पृ० ९५ ४. देखिये सातवाँ अध्याय पृ० १८१ । देखिये वही, पृ० २२६ । ५.
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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