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________________ हाथ अपभ्रंश-साहित्य का पंचम अक्षर प्रयुक्त न होकर केवल अनुस्वार का ही प्रयोग होता है (यथा पंक, चंचल, दंत आदि)। व्यंजन समीकरण के चरम सीमा पर पहुँच जाने के परिणाम-स्वरूप द्वित्व व्यंजन के स्थान पर एक व्यंजन की प्रवृत्ति अपभ्रंश काल के उत्तर भाग में ही प्रारम्भ हो गई थी। दो व्यंजनों के स्थान पर एक व्यंजन होने से पूर्व स्वर अधिकतर दीर्घ किया गया। णीसरन्ति=निस्सरन्ति प० च० ५६. २ तासु तस्स-तस्य; नीसास निस्सास प० सि० च० १. १३ दीह=दिग्घ =दीर्घ इत्यादि । इस प्रवृत्ति का पूर्णरूपेण विकास आधुनिक काल की भारतीय आर्यभाषाओं में दिखाई देता है। पंजाबी भाषा में इस प्रवृत्ति का अभाव है। संस्कृत पंजाबी हिन्दी अद्य = अज्ज = आज कर्म = कम्म = काम हत्थ इत्यादि .. संयुक्त वर्गों में से एक को ही रख कर भी पूर्ववर्ती स्वर को लघु बनाये रखने की प्रवृत्ति भी अपभ्रश में दिखाई देती है। थक्कइ, विषमत्थरण के साथ-साथ थकइ, विषमथण भी प्रयुक्त किये गये। इसी प्रकार उन्मुक्त उम्मुक्क=उमुक्क, उच्छ्वासः= उसास आदि शब्दरूप भी अपभ्रंश ग्रंथों में मिलते हैं। हिन्दी में इसी प्रवृत्ति के परिणाम स्वरूप उछाह =उच्छाह=उत्साह, भगतबछल = भगतवच्छल=भक्तवत्सल, समुद=समुद्द=समुद्र आदि शब्द प्रचलित हो गये। डा० सुनीतिकुमार चैटर्जी इस प्रकार के शब्द-रूपों के प्रचलन में पंजाबी भाषा की प्रवृत्ति का प्रभाव मानते हैं। पंजाबी में व्यंजन समीकरण तो मिलता है किन्तु संयुक्त वर्गों में से एक को ही रख कर पूर्ववर्ती स्वर को दीर्घ करने की प्रवृत्ति का अभाव है। पंजाबी की इस प्रवृत्ति ने हिन्दी के अनेक शब्दों को प्रभावित किया है। हिन्दी में सत्य= सच्च=सच, कल्य=कल्ल=कल आदि शब्द इसी प्रवृत्ति के कारण साच और काल न बन पाये। अपभ्रंश भाषा में स्वार्थ में अ, ड, अल, इल्ल, उल्ल' आदि प्रत्ययों का प्रयोग अनेक शब्दों में मिलता है। इस प्रकार के प्रत्ययों का प्रयोग कदाचित् छन्द के अनुरोध से किया जाता होगा। 'अलंकृत' शब्द का अपभ्रंश रूप 'प्रलंकियु' होगा किन्तु स्वार्थ सूचक अप्रत्यय लगने पर 'अलंकियउ'। इसी प्रकार 'सुप्त' के स्थान पर अपभ्रंश में सुत्तु और सुत्तउ दोनों रूप मिलते हैं। तुहु ण सुत्तु सुत्तउ महि मंडल । प० च० ७६.३ . इसी प्रकार के गयउ, चलियउ आदि प्रयोग परवर्ती ब्रजभाषा की कविता में १. चैटर्जी - इंडो आर्यन एण्ड हिन्दी पृ० ११४
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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