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________________ अपभ्रंश और हिन्दी प्रचुरता से पाये जाते हैं। जायसी के संदेसड़ा और कबीर के जियरा आदि शब्दों में भी स्वार्थ-सूचक ड़ प्रत्यय का रूप ही दृष्टिगत होता है। __ अपभ्रंश में हस्व और दीर्घ स्वर के व्यत्यय के नियम का हेमचन्द्र ने निर्देश किया है। इसके अनेक उदाहरण अपभ्रंश शब्दों में मिलते हैं । जैसे सरस्वती सरसइ, मालामाल, ज्वाला=जाल, हुन=हुआ, मारिन= मारिया आदि । छन्द-पूर्ति के लिये इस प्रकार स्वर व्यत्यास प्रायः करना पड़ता था। _ "तुहु पडिऊसि ण पडिउ पुरंदरु" प० च० ७६.३ एक ही चरण में पडिउ और पडिऊ ( पतितः ) दो रूपों का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार का स्वर व्यत्यास शब्द के अन्त में और चरण के अन्त में किया जाता था। हिन्दी कविता में भी इस प्रकार के उदाहरण मिलते हैं । कवित्त और सवैया जैसे छन्दों में प्रायः अनेक शब्दों में ए और प्रो को ह्रस्व रूप में पढ़ना पड़ता है। इसी प्रकार तुलसी, जायसी आदि कवियों के काव्य में चरण के अन्त में हाथा, फूला, नहाहू, विरोधू, हारू आदि ऐसे शब्द मिलते हैं जिन में छन्द के अनुरोध से ह्रस्व स्वर के स्थान पर दीर्घ स्वर का प्रयोग किया गया है। अपभ्रश में यह स्वरव्यत्यास चरण के बीच शब्द के मध्य में भी कहीं-कहीं मिल जाता है। जैसे गभीर गहिर, प्रसाधन=पासाहण, पूरिस आदि । डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी का विचार है कि 'संभवतः इस प्रथा का पुराना अवशेष संस्कृत के 'पद्मावती' जैसे शब्दों में खोजा जा सकता है जिस के तौल पर 'कनकावती' 'मुग्धावती' जैसे शब्द हिन्दी में चल पड़े।' अपभ्रंश में प्राकृत परम्परा के प्रभाव से शब्द रूपों में तीनों लिंग चले आ रहे थे। हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत व्याकरण में नपुंसक लिंग में शब्दों के रूप का विधान किया है । हिन्दी में नपुंसक लिंग का विधान नहीं है । हिन्दी, पंजाबी, राजस्थानी तथा सिंघी में दो लिंग ही होते हैं । बंगाली, मासामी, बिहारी तथा उड़िया में, संभवतः समीपवर्ती तिब्बत और बर्मा प्रदेशों की अनार्य भाषाओं के या कोल भाषाओं के प्रभाव के कारण, लिंगभेद बहुत शिथिल हो गया है। गुजराती, मराठी, सिंहली तथा पश्चिमोत्तर हिमालय की कुछ बोलियों में नपुंसक लिंग के कुछ चिह्न अब भी मिलते हैं। अपभ्रंश में विशेषण और संज्ञा का लिंग साम्य चला आ रहा था। जैसे'रावणु दहमुहु वीस हत्थु' प० च० १.१० । 'रोवइ अवरा इव रामजणणि' प० च० ६६.१३ । १. हिन्दी साहित्य का प्रादिकाल, विहार-राष्ट्रभाषा-परिषद्, पटना, सन् १९५२ ई०, पृष्ठ ४४॥ २. डा० धीरेन्द्र वर्मा-हिन्दी भाषा का इतिहास, पृ० २५१ । ३. डा० बाबूराम सक्सेना-सामान्य भाषा विज्ञान, पृ० २६६ ।
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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