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अपभ्रंश कथा-साहित्य
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से सहसा विरक्त हो गया। मन्त्रि पद का विचार छोड़कर संन्यास-ग्रहण का संकल्प किया। आचार्य संभूति विजय से जैन-धर्म में दीक्षा लेकर कठोर तपस्या में लीन हो गया।
कालान्तर में स्थूलिभद्र फिर चातुर्मास्य में कोशा के घर आया। कोशा का सुन्दर मुख, उसके तीक्ष्ण कटाक्ष उस पर कोई प्रभाव न डाल सके। इस प्रकार स्थूलिभद्र के अखंड ब्रह्मचर्य के माहात्म्य वर्णन के साथ कथा समाप्त होती है।
कृति में सरस और सुन्दर वर्णन उपलब्ध होते हैं। प्रकृति और मानव दोनों का सुन्दरता से वर्णन किया गया है । वसन्त का वर्णन करता हुआ कवि कहता है
"अह पत्तु कयाइ वसंत समओ, संजणिय -सयल- जण- चित्त- पमओ, उल्लासिय-रुक्ष पवाल-जालु, पसरंत-चारु-चच्चरि व्व मालु ॥१॥
हिं वण-लय-पयडिय-कुसुम-वरिस, महु-कंत समागय जणिय हरिस । पवमाण-चलिर-नव-पल्लवेहि , नच्चंति नाइ कोमल करेहिं ॥२॥ नव- पल्लव- रत्त -असोअ -विडवि, महु-लच्छिहि सउं परिणयणु घडवि।
हिं रेहहिं नाइ कुसुभरत्त, वहिं नियंसिय सयल गत ॥३॥ हसइ व्व फुल्ल-मल्लिय-गणेहि, नच्वइ व्व पवग-वेविर-वर्णोहि । गायइ भमरावलि रविण नाइ,
जो सयमवि मयणुम्मत्तु भाइ ॥४॥ (पृष्ठ ४४३) वर्णन में स्वाभाविकता है । प्रकृति में चेतना अनुप्राणित करते हुए कवि ने चराचर में वसन्त के प्रभाव की व्यंजना की है। कवि कोशा का सौन्दर्य वर्णन करता हुआ कहता है
"जसु वयण विणिज्जउ णं ससंकु, अप्पाणु निर्सिहिं दंसइ ससंकु। जसु णयण-कंति-जिय-लज्ज-भरिण, वण-वासु पवनय नाइ हरिण ॥८॥ जसु सहहिं केस-घण कसण-वन्न, नं छप्पय मुह पंकय पवन्न । भवणिक्क-वीर-कंदप्प-धणह, सुंदरिम विडंबहि जासु भमुह ॥९॥