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अपभ्रंश- साहित्य
कुछ संस्कृत के प्राचीन पद्य भी लेखक ने उद्धृत किये हैं । '
स्थूलभद्र कथा
यह सोमप्रभाचार्य कृत कुमार पाल प्रतिबोधान्तर्गत ( पृ०४४३ - ४६१ ) एक छोटी-सी कथा है । इसमें कवि ने ब्रह्मचर्य व्रत का माहात्म्य प्रदर्शित किया है।
पाटलिपुत्र नगर में नवम नन्द राजा राज्य करता था । उसका शकटार नामक मन्त्री था । मन्त्री के ज्येष्ठ पुत्र का नाम स्थूलिभद्र था । स्थूलभद्र अतीव सुन्दर रूपवान् युवक था। एक बार वसन्त समय में, जब सर्वत्र उल्लास छाया हुआ था, स्थूलिभद्र कोशा नामक वारवनिता के प्रासाद में गया । गवाक्ष स्थित परम सुन्दरी कोशा को देख कर स्थूलभद्र मुग्ध हो गया और उसे ऐसा प्रतीत हुआ-
" रयणालंकिय-सयल-तणु
उज्जल - वेस - विसिठ । नं सुर-रमणि विमाण-गय लोयण विसइ पविठ ॥७॥
मानो विमान-स्थित कोई सुर- रमणी उस की आँखों के आगे आई हो । उसके अंग प्रत्यंग की सुषुमा से स्थूलभद्र का हृदय विचलित हो उठानिम्मल-मुत्तिय-हार मिसि रइय चउक्कि पहिछु ।
पढम् पविट्ठउ हिय तसु पच्छा भवणि पविठु ॥ १३ ॥
उसके भवन में प्रवेश करने से पूर्व ही वह उसके हृदय में प्रवेश कर गया । इस प्रकार बारह वर्ष तक स्थूलिभद्र कोशा के साथ भोग-विलास में लीन रहा ।
शकार की मृत्यु के बाद राजा को चिन्ता हुई कि मन्त्री किसे बनाया जाय । स्थूलभद्र का आचरण ठीक न था । अतः उन्होंने इसके छोटे भाई श्रीपक को मन्त्री का पद स्वीकार करने के लिए आमन्त्रित किया । किन्तु बड़े भाई के रहते, बिना उसकी अनुमति के उसने मन्त्रि-पद स्वीकार करने में आपत्ति की । स्थूलिभद्र के पास राजा का संदेश पहुँचा तो उसने इस पर विचार करने का समय मांगा। वह सहसा कोशा के रंगभवन से बाहर निकल दूर एक उद्यान में जाकर ध्यान मग्न हो गया। सांसारिक भोग-विलास
སཱུ་་ཡ་་་་་་ ་་་ एकाक्षर प्रदातारो (रं) सो गुरुं नैव श्वान योनि शतं गत्वा चांडालेष्वपि
मन्यते । जायते ॥ इत्यादि १५.१५
एकमप्यक्षरं यस्तु गुरुः शित (प) तत्। पृथिव्यां नास्ति तद् द्रव्यं यद्दत्त्वा चानूणी भवेत् ॥ एकाक्षर प्रदातारो (रं) मो गुरुं नैव श्वान योनि शतं गत्वा चांडालेष्वपि
मन्यते । जायते ॥ इत्यादि १५.१५